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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५७७ के परिणाम से स्खलित न होने देने के लिए अब्रह्मचर्य के निमित्तभूत वेश्याओं के संग से या वेश्यालयों के स्थानों से बचकर चलने का निर्देश किया है। इसी प्रकार आगे कहा गया है- 'जहाँ कलह, क्लेश या उद्वेग पैदा होता हो, उस स्थान को दूर से ही त्याग देना चाहिए ।' अतः राग और द्वेष के मूल निमित्त कारणों से बचना चाहिए। जैसे- जैसे प्रबल निमित्त कारण मिलते जाते हैं, वैसे-वैसे कभी राग का पलड़ा भारी हो जाता है, तो कभी द्वेष का पलड़ा । इसलिए राग और द्वेष की न्यूनाधिकता का नापतौल करना बड़ा ही कठिन है। अतः संसार की अपेक्षा से राग-द्वेष का प्रमाण का जानना तो छद्मस्थ के लिए असम्भव है ही, अलबत्ता, राग या द्वेष का हिसाब प्रत्येक जीव के व्यक्तिगत परिणामों या निमित्तों के आधार पर लगाया जा सकता है; मगर वह भी छद्मस्थ जीवों के लिए सम्भव नहीं है। कई जीवों में राग की मात्रा अधिक होती है तो कई जीवों में द्वेष की मात्रा अधिक होती है। कई जीवों में रागवृत्ति अधिक मात्रा में होती है, द्वेषवृत्ति बहुत ही कम | उन्हें अपने पुत्र, पत्नी, परिवार, धन, धान्य, वैभव, जमीनजायदाद आदि पर राग अधिक होता है; यदि अप्रिय पदार्थों के प्रति द्वेष रहता है, तो भी बहुत ही कम । दूसरी ओर द्वेषवृत्तिप्रधान जीवों में यद्यपि अपने परिवार, धनं आदि के प्रति राग तो रहता ही है, परन्तु द्वेष की अपेक्षा उसकी मात्रा कम होती है। वे ईर्ष्या, वैरविरोध, शत्रुता, पूर्वाग्रहग्रस्तता आदि के कारण किसी व्यक्ति, परिवार, जाति, सम्प्रदाय, प्रान्त, राष्ट्र, नगर आदि पर द्वेष से अहर्निश संक्लिष्ट रहते हैं । द्वेष की मात्रा ऐसे व्यक्तियों में अधिक होती है । किसी-किसी व्यक्ति के मन में पूरी की पूरी जाति, समूचे सम्प्रदाय, समग्र राष्ट्र, प्रान्त या नगर के प्रति वैमनस्यता या दुश्मनी के भाव इतने प्रबल होते हैं कि उस-उस जाति, सम्प्रदाय, राष्ट्र या प्रान्तादि का नाम, प्रशंसा या प्रसिद्धि सुनते-देखते ही उनके मन में द्वेष की प्रचण्ड आग लग जाती है; वे उसे क्षणभर भी सहन नहीं कर पाते। वे तुरन्त विरोधी या विपक्षी मानी जाने वाली जाति, सम्प्रदाय आदि के प्रति क्रूर, घातक और कालमुखी बन जाते हैं । १ आतंकवादियों तथा उग्रवादियों, साम्प्रदायिकों तथा राजनीतिज्ञों के काले कारनामे हमारे सामने स्पष्ट हैं। जैन इतिहास में प्रसिद्ध ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती की आँखें फोड़ने के कारण द्वेष का . निमित्त एक ब्राह्मण बना, किन्तु समस्त ब्राह्मण जाति के प्रति उसका द्वेष इतना तीव्र हुआ कि वह प्रतिदिन ब्राह्मणजाति के लोगों की आँखें निकलवा कर मंगाता और उन आँखों को अपने हाथों से मसल कर फोड़ता था । यह सिलसिला जिंदगी के १. कर्म की गति न्यारी, भा. ८ से भावांशग्रहण, पृ. २७, २८ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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