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रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५७१ जाता है। राग का द्वेषरूप में परिवर्तन बहुत ही शीघ्र हो जाता है। और ऐसा परिवर्तन व्यक्ति, परिवार, ग्राम, नगर, समाज, राजनैतिक पक्ष, धर्मसम्प्रदाय, संघ, जाति और राष्ट्र में द्वेष की आग में झुलसाता जाता है। राग की आग से द्वेष की आग भयंकर होती है। दूध में मेवा, मिश्री, केसर आदि डालकर बहुत ही सुस्वाद्य खीर बनाई गई है, उसमें जहर की एक बूंद गिर जाए, अथवा घास के ढेर में एक चिनगारी पड़ जाए तो वह खीर अपेय बन जाती है और एकीकृत घास का ढेर समाप्त हो जाता है, वैसे ही परिवार, समाज, संघ और राष्ट्र के प्रति जो प्रेम था, उसमें विद्वेषवश कुशंका का विष डाल देने या फूट की चिनगारी डाल देने पर गौरवहीन, संस्कृतिविहीन एवं अनादेय बन जाता है।
जो सहोदर भाई आपस में बड़े प्रेम से रहते थे। उनमें परस्पर अत्यन्त स्नेहराग था, किन्तु पिता की मिल्कियत के.बंटवारे के समय ठीक ढंग से सम्पत्ति और जमीन जायदाद का बंटवारा न होने के कारण या एक ही भाई के द्वारा सारी सम्पत्ति हजम किये जाने के कारण यथार्थ न्याय नहीं मिलने से भाई-भाई का स्नेहराग एकाएक द्वेष में पलट जाता है। भाई, भाई का जानी दुश्मन बन जाता है, यहाँ तक कि किसी भी उपाय से वह उसकी हत्या भी कर या करवा देता है। __ यदि परिस्थिति विपरीत हो जाती है, तो पुत्र पिता या माता की या माता या पिता पुत्र की हत्या तक कर डालने में संकोच नहीं करते। - शादी से पहले और शादी के बाद पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका में रागभाव बहुत तीव्र हो जाता है। इतना तीव्र राग कि एक दूसरे के बिना खाने, पीने और जीने की सम्भावना भी असम्भव लगती है। किन्तु अचानक पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका के बीच कुशंका या दुराव की दरार पड़ जाए, अथवा पति को पत्नी के बदचलन होने का शक पैदा हो जाए तो पति या प्रेमी का सारा स्नेहराग द्वेष में परिणत हो जाता है। जो पति या प्रेमी रागभाव के कारण पत्नी या प्रेमिका के प्रति कोमल था, वह द्वेषभाव.
के कारण कठोर एवं क्रूर बन जाता है। - आज सारे विश्व में नब्बे प्रतिशत घटनाएँ राग के द्वेष में रूपान्तरित होने की सुनी-देखी-पढ़ी जाती हैं। परिवार से लेकर समाज, राष्ट्र या विश्व तक में प्रायः राग का द्वेष में रूपान्तरण होने के कारण ही विघटन, फूट, ईर्ष्या, कलह और युद्ध तक की नौबत आती है। अधिकांश लोग चाहते हैं कि परस्पर रागभाव बना रहे, उसे टिकाने एवं निभाने के लिए स्वयं त्याग, सहयोग एवं प्रयत्न भी करते हैं, फिर भी वह रागभाव काँच के बर्तन की तरह फूट जाता है। वे टूटे हुए काँच के टुकड़े जैसे
१. कर्म की गति न्यारी, भा. ८ से भावांशग्रहण, पृ. १७
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