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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५६९ अधिक द्वेष का स्वल्प द्वेष में भी परिवर्तन सम्भव है। इसी प्रकार शुभ राग का अशुभ राग में और अशुभ राग का शुभ राग में भी रूपान्तर होता रहता है। तथा कभी-कभी उपशान्त राग बन्ध उदय में आ जाता है, और कभी उदय में आने से पहले ही राग उपशान्त या क्षीण हो जाता है। इसी प्रकार रागबन्ध की तरह द्वेषबन्ध के विषय में भी समझ लेना चाहिए। इस तरह राग और द्वेष का एक दूसरे में रूपान्तर होने, न होने या उभयरूप में होने के अनेक विकल्प रागबन्ध और द्वेषबन्धं के अनेक पैंतरे सूचित करते हैं। राग और द्वेष की चतुर्भगी सर्वप्रथम द्विकसंयोगी चतुभंगी की तरह राग और द्वेष के चार विकल्प प्रस्तुत किये जा रहे हैं- (१) राग से राग, (२) राग से द्वेष, (३) द्वेष से राग और (४) द्वेष से द्वेष। इन चारों का संक्षेप में विश्लेषण करने से भली भांति समझ में आ जाएगा। इन चार विकल्पों से युक्त स्वभाव वाले भिन्न-भिन्न प्रकार के चार किस्म के जीव संसार में होते हैं। प्रथम विकल्प : राग से राग की वृद्धि (१) राग से राग- ऐसे कई जीव हैं, जिनके जीवन में राग द्वेष के रूप में नहीं बदलता, अपितु राग उत्तरोत्तर अधिक-अधिक राग में परिणत होता जाता है। जैसेकिसी ग्रामीण ने दूध में शक्कर डाली, वह मीठा हो गया। किन्तु उसने सुन रखा था कि अधिक मीठा डालने से दूध ज्यादा मीठा हो जाता है। अतः दूसरी, तीसरी और चौथी बार इस तरह अनेक बार शक्कर डालता ही चला गया। इस प्रकार शक्कर डालने से मीठा दूध अधिकाधिक मीठा होता गया। फलतः वह अत्यधिक मीठा दूध पीने योग्य भी नहीं रहा, कुछ कड़वा भी लगने लगा। इसी तरह कई जीवों में राग अत्यन्त बढ़ता-बढ़ता तीव्रतम हो जाता है। वह अत्यधिक तीव्र राग आखिरकार जीवन के निकाचित् कर्मबन्धक भी हो सकता है, जिसका फल दुःखदायी होता है। एक राजा की अपनी पत्नी पर अत्यधिक राग-वासना, अत्यन्त मोह और तीव्र आसक्ति थी। अन्त में, रानी के मस्तक में एक फोड़ा हो गया। उसमें मवाद पड़ गया। राजा तीव्र राग-वासना के कारण मरकर रानी के उस मस्तकीय फोड़े में कृमि रूप में उत्पन्न हुआ। यह था- तीव्र राग का परिणामार ___इसी प्रकार एक माता का अपने पुत्र के प्रति इतना तीव्र रागभाव था कि उसे स्वयं कपड़े पहनाती, स्वयं नहलाती-धुलाती, स्वयं भोजन खिलाती, यहाँ तक कि .. १. कर्म की गति न्यारी.भा.८ से भावांश ग्रहण, पृ. १६ २. कर्म की गति न्यारी भा.८ से भावांश ग्रहण, पृ. १६, १७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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