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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५६७ फटकारता है, पत्रों में टीका-टिप्पणी करता है; मारता-पीटता है, कलह, वाक्युद्ध एवं झगड़ा कर बैठता है। इन सब द्वेष के प्रकारों से पापकर्मबन्ध कर लेता है, फिर भी समझता है कि मैंने अनुक व्यक्ति को निरुत्तर कर दिया, विजय प्राप्त कर ली, अब निश्चिन्त होकर चैन की नींद ले सकूँगा। परन्तु परिणाम कुछ और ही आता है। द्वेषवृत्ति जब क्रोधादिरूप में प्रगट होती है, तब वह जिसके प्रति द्वेषादि से प्रेरित होकर उपर्युक्त प्रकारों में से किसी एक प्रकार को अपनाता है, तब सामने वाला व्यक्ति उसका शत्रु बन जाता है। द्वेषकर्ता व्यक्ति की नींद हराम हो जाती है। उसकी मानसिक शान्ति भंग हो जाती है। कई बार तो वह पागलों की तरह बड़बड़ाता रहता है। कई बार उक्त द्वेषवश उग्रकोप, रोष आदि करने से हार्ट फेल तक हो जाता है। एक नगर में हमने यह प्रत्यक्ष देखा कि एक व्यक्ति द्वेषवश दूसरे व्यक्ति पर रोष से एकदम उबल पड़ा, अत्यधिक जोर से बोलने पर नसें तन गईं, और हृदय की धड़कन बढ़ जाने से उसी समय हार्ट फेल हो गया। अतः द्वेषवृत्ति से सुख प्राप्त होता है, यह धारणा बिलकुल गलत है। बल्कि मनुष्य ज्यों-ज्यों अधिकाधिक द्वेष करता जाता है, त्यों-त्यों अशान्ति, दुःख तथा मानसिक रोग आदि बढ़ते जाते हैं। राग और द्वेष, दोनों की परिणति दुःखदायी:क्यों और कैसे? अतः रागं और द्वेष दोनों ही परिणाम में दुःखदायी हैं, सुखदायी नहीं। जब मनुष्य रागवश जिस व्यक्ति के प्रति प्रणय, प्यार, स्नेह या आसक्ति करता है, और उससे भी अमुक-अमुक अपेक्षा रखता है, अमुक इच्छा की तृप्ति चाहता है, परन्तु वैसा न होने पर, यानी उसकी अमुक इच्छा, अपेक्षा या आकांक्षा पूर्ण या तृप्त न होने. पर वह दुःखी होता है, अंदर ही अंदर कुढ़ता है, जलता है। इस प्रकार राग की अन्तिम परिणति दुःखदायिनी बनती है। यही दशा द्वेष की है। द्वेषवश भी मनुष्य अपनी इच्छा-पूर्ति के लिए अनेक प्रकार की विपरीत प्रवृत्तियाँ करता है, परन्तु जब .उसके द्वारा कल्पित इच्छा या आकांक्षा की पूर्ति नहीं होती है तो वह दुःखी हो जाता है। वह उसका सफाया करने की योजना बनाता है, वह योजना या षडयंत्र भी फेल हो जाता है तो उसे भारी आघात लगता है। इसलिए राग हो या द्वेष, दोनों ही दुःख के मूल हैं। आकुलता, अशान्ति और उद्विग्नता का वातावरण पैदा करने वाले हैं। अन्तर सिर्फ इतना ही है कि राग चूहे की तरह काम करता है और द्वेष काम करता है- सर्प की तरह। चूहा फूंक मारता हुआ ठंडे स्पर्श से विष फैलाता है, जबकि सर्प तेज फुकार मारकर विष फैलाता है। हैं दोनों ही विषाक्त और मारक। सर्प के विष से मनुष्य शीघ्र ही मर जाता है, और चूहे के विष से धीरे-धीरे मरता है। इसी प्रकार राग और द्वेष दोनों ही जहर के समान मारक और दुःखदायी हैं। १. कर्म की गति न्यारी भा.८ से भावांश ग्रहण, पृ. १६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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