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रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५६५ क्रियान्वित करने वाले शब्द हैं। इसका अभिप्राय यह है कि राग और द्वेष इतने-इतने निमित्तों या तरीकों से प्रकट होता है। यह बात अवश्य है कि ये राग-द्वेष के पर्यायवाची शब्द होते हुए भी इनकी मात्रा में न्यूनाधिकता अवश्य है। इच्छा का भी सूक्ष्मरूप वासना है, उसके बाद स्नेह, इच्छा, ममता, मूर्छा, गद्धि, लालसा और तृष्णा, ये राग के उत्तरोत्तर रूप हैं, तथैव दोषदर्शन, ईर्ष्या, परिवाद, रोष, मत्सर, वैरविरोध, वैमनस्य, कलह, युद्ध आदि भी उत्तरोत्तर विकटतर हैं। जो भी हो, राग के या द्वेष के, इनमें से किसी भी रूप का प्रयोग करने से सुख के बदले दुःख ही बढ़ता है, मानसिक अशान्ति, अस्वस्थता और तनाव आदि ही बढ़ते हैं और इन सबसे बढ़कर दुःख है-इनसे संसार परिभ्रमण में वृद्धि का। ..
राग-द्वेष जितना उत्कट, उतना ही दुःखदायी यह तो निश्चित है कि राग-द्वेष जितनी-जितनी मात्रा में उत्कट, उत्कटतर होंगे, कर्मबन्धन उतना उतना गाढ़रूप से बंधेगा। उसका फल भी उतना तीव्र और अशुभ होगा। फल भोगने में उतना ही कटु, दुःखदायी होगा।
कषायों के समान राग-द्वेष की भी छह डिग्रियाँ - जिस प्रकार आगमों में कषायों की अनन्तानुबन्धी आदि ४ डिग्रियाँ बताई हैं, उसी प्रकार राग और द्वेष की भी उत्तरोत्तर ६ डिग्रियाँ हो सकती हैं। जैसे-तीव्रतम, तीव्रतर, तीव्र, मन्द, मन्दतर और मन्दतम-राग और द्वेष। रागद्वेष जितना जितना कम होता जाएगा, उतने-उतने अंशों में कर्मबन्धन भी कम होते जाएंगे। विशेषतः मोहनीयकर्म भी उत्तरोत्तर मन्द-मन्दतर होता जाएगा। इसीलिए कहा गया है जितनेजितने अंशों में (चारित्रमोहनीय के क्षय या क्षयोपशम से) चारित्र है, उतने-उतने अंशों में रागबन्धन नहीं है, इसके विपरीत जितने-जितने अंशों में रागभाव है, उतनेउतने अंशों में वह बन्धन रूप है। जीव जिस सुख की तलाश में है, उससे पृथक् अव्याबाध, शाश्वत और स्वाधीन सुख (आनन्द) के अनन्त सागर के निकट पहुँच जाएगा। वह अव्याबाध सुख अनाकुलता में है, राग और द्वेष दोनों में आकुलता है, उद्विग्नता पैदा होती है, सुखशान्ति को ये दोनों चौपट कर देते हैं। जहाँ राग होगा या द्वेष होगा, वहाँ अनाकुलता होना आकाशकुसुम के समान है।
१. कर्म की गति न्यारी भा. ८, पृ.८ २. येनांशेन तु चारित्रं, तेनांशेनाऽस्य बन्धनं नास्ति।
येनांशेन तु रागः, तेनांशेनाऽस्य बन्धनं भवति॥
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