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________________ रागबन्ध और द्वेषबन्ध के विविध पैंतरे ५६३ के काटने से वह मरण-शरण हो गया। मरकर नरक में पहुँचा। वहाँ से वह अनेक भवों में भटकेगा। (८) इन सबसे भी भयंकर है दृष्टिराग। “कामराग और स्नेहराग-इन दोनों से तो थोड़ा कर्मबन्ध होता है, अतः इन दोनों को ईषत्कर (सुकर) माना गया है, क्योंकि ये दोनों आसानी से छूट सकते हैं, किन्तु दृष्टिराग तो इतना पापिष्ठ और भयंकर है कि इसे उखाड़ने में बड़े-बड़े सन्त या सज्जनपुरुष भी असफल हो जाते हैं।" विशेषावश्यक भाष्य में कहा गया है-'रागवेदनीय से समर्जित तीनों राग भावतः होते हैं। कामराग शब्दादि विषयों के प्रति होता है, स्नेहराग व्यक्तियों-जीवों के प्रति विषयादि निमित्तों को लेकर होता है, कभी-कभी शास्त्रादि के प्रति भी होता है और दृष्टिराग तो कुप्रवचनादि या सिद्धान्त-विरुद्धमत-स्थापन के प्रति होता है। गोशालक भगवान् महावीर से पृथक् होकर आजीवक सम्प्रदाय का आचार्य बन गया था। भगवान् महावीर से विमुख होकर उसने स्वतंत्र मत स्थापित किया जो एकान्त नियतिवाद कहलाता था। अन्तिम समय में उसको पश्चात्ताप हुआ। उसकी मति सुधर गई। फिर भी वह दृष्टिराग की तीव्रतावश कई भवों तक कुगतियों में भटकता रहेगा। - निष्कर्ष यह है कि संसारी अवस्था में कोई भी जीव ऐसा नहीं मिलेगा, जिसमें रागद्वेष की मात्रा न हो। या तो दोनों ही प्रचुर मात्रा में होते हैं; या फिर दोनों में एक प्रमुख और दूसरा गौण हो जाता है। इस तरह अकेले राग से या अकेले द्वेष से भी भवपरम्परा चलती है। यह रागद्वेष की परम्परा किसी की अल्पकाल तक तो किसी की चिरकाल तक चलती रहती है। इसीलिए संसार रागद्वेष से बना हुआ है, रागद्वेषमय है। .. -अध्यात्मसार १. देखें-मदनरेखा (स्व. आचार्य श्रीजवाहरलालजी म.) .. २. (क) कामराग-स्नेहरागाविषत्करावभौ। दृष्टिरागस्तु पापीयान् दुरुच्छेद्यः सतामपि। (ख) जं राय-वेयणिज, समुइणं भावओ तओ राओ। सो दिट्ठि-विसय नेहाणुरायरूवो अभिस्संगो॥ २९६४ ॥ कुप्पवयणेसु पढमो, विइओ सद्दाइएसु विसएसु। विसयादिनिमित्तो वि हु, सिणेहराओ सुयाईसु ॥ २९६५ ॥ -विशेषावश्यक भाष्य ३. देखें, भगवती सूत्र शतक १५ ४. कर्म की गति न्यारी, भा. ८, पृ. ८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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