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५६० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
विषयों के निमित्त से रागद्वेष, उनके कारण कर्मबन्ध और फिर दुःख यों देखा जाए तो मनुष्य इन्द्रियों और मन के विषयों के प्रति राग-द्वेष करता है। अतः विषयों के निमित्त से राग-द्वेष, रागद्वेष के कारण कर्मबन्ध तथा कर्मबन्ध से. संसार-परिभ्रमण होता है। अर्थात्-संसार में जन्म-मरणादि नानाविध दुःखों में भटकता है। संसार परिभ्रमण से अनेक दुःखों का अनुभव सतत होता है। इसीलिए 'प्रशमरति' में ठीक ही कहा है-"संसार कर्ममय है, अर्थात्-संसार कर्मों का विकार है और फिर दुःख भी तो संसार के निमित्त (जन्ममरणादिरूप संसार के कारण) से होता है। इसलिए सिद्ध होता है कि राग-द्वेष आदि ही भवसन्तति (संसार-परम्परा) का मूल कारण है।" उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार वस्तुतः "उपार्जित किये हुए ये कर्म ही जन्म-मरण (संसार) के मूल हैं और जन्म-मरण ही दुःखरूप है। इस प्रकार कर्म से जन्ममरण, जन्म-मरणरूप संसार-परिभ्रमण से दुःख, सुख, उनसे मोह, मोह से रागद्वेष, राग-द्वेष से कर्मबन्ध, उससे फिर जन्ममरण, सुख-दुःख ... आदि, एक प्रकार का विचित्र कर्मचक्र है जिसका मूल रागद्वेष-परिणाम है।
राग-द्वेष की तीव्रता : भवपरम्परा का कारण ___ मूल में संसार अर्थात्-भव (जन्म-मरण)-परम्परा राग-द्वेष से होती है भवपरम्परा चलने में प्रमुख कारण या तो तीव्र रागबन्ध या तीव्र द्वेषबन्ध है। जिनसे जन्म-मरणादि अनेक दुःख भोगने पड़ते हैं। कुछ उदाहरणों से इस तथ्य को स्पष्टतया • समझिये
(१) तीव्र-द्वेषपरम्परा-समरादित्य केवली चरित्र से स्पष्ट है कि प्रथम भव में जो दो मित्र थे-अग्निशर्मा तापस और गुणसेन राजा। अग्निशर्मा का मासक्षपण का पारणा तीन-तीन बार टल जाने से उसके मन में गुणसेन के प्रति द्वेष की गांठ बंध गई। उसने गुणसेन से वैर का बदला लेने हेतु गुणसेन को मारने वाला बनने का निदान (नियाणा) किया। इस प्रकार जन्म-जन्म में द्वेषवृत्ति का निदान करके अग्निशर्मा का जीव गुणसेन के जीव को मारता रहा। मुनिहत्या आदि महापाप कर्म बन्ध का भार ढोता हुआ वह अनेक जन्मों तक दुर्गति में परिभ्रमण करता रहा। उधर गुणसेन का जीव प्रत्येक भव में क्षमा, समता और संयम रखकर अग्निशर्मा के जीव
१. (क) कर्म की गति न्यारी भा. १, पुस्तक ८, पृ. १ और १२ (ख) कर्ममूलं संसारः, संसार-निमित्तकं पुनर्दुःखम्।। तस्माद्राग द्वेषादयास्तु भवसन्ततेर्मूलम्॥
-प्रशमरति ५७ (ग) कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। "कम्मं च जाई-मारणस्स मूलं। दुक्खं च जाईमरणं वंयति॥
-उत्तराध्ययान अ. ३२, गा.७
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