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________________ ५५४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ कर्म सिद्धान्त पर उसकी अटल आस्था रहती है। वह स्थिर और शान्त रहती है, क्योंकि उसकी दृढ़ श्रद्धा होती है। जिस प्रकार के ऋणानुबन्ध का उदय होता है, उस प्रकार का फल मिलता है। उसमें कुछ भी परिवर्तन (उदय में आने पर) नहीं होता। (प्रत्येक जीव या पदार्थ के साथ शुभाशुभ ऋणानुबन्ध होने से पहले ही) राग या द्वेष के भाव जुड़े बिना समभाव में अवस्थित दशा में रहने, उसके निश्चयरूप पुरुषार्थ में सफलता प्राप्त होती और क्रमशः वह (प्रत्येक प्रसंग या प्रवृत्ति में) ज्ञाता-द्रष्टारूप रहने में समर्थ होता है। ___ इस सिद्धान्त का दृढ़ आलम्बन लेने के पश्चात् उसके अन्तर् में ऐसे भाव नहीं उठते कि 'इसके लिए ऐसा नहीं होता तो अच्छा रहता, क्योंकि उससे चिन्तामुक्त रहा जा सकता था' अथवा 'इसके लिए इतना इस प्रकार हुआ, वह ठीक हुआ, क्योंकि उससे कितनी ही सुविधाएँ अनायास ही प्राप्त हो गईं इत्यादि प्रकार के व्यवहार दृष्टि से उत्पन्न होने वाले भाव या विकल्प (शुभाशुभ-इष्टानिष्ट निमित्तों के विकल्प) अनेक प्रकार के (कर्म-सिद्धान्त के) नियमों के ज्ञान से और उसके जागतिपूर्वक उपयोग से उपशान्त होते जाते हैं। अर्थात्-इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग के प्रसंग पर समभाव रखने से उसे शान्ति प्राप्त होती है, कषाय उपशान्त हो जाते हैं। यत्र-तत्र राग-द्वेष से दूर रहने का जो बोध किया है, उक्त नियम का पालन तथा अभ्यास करने से राग-द्वेष कम होकर क्षीण होने लगते हैं। वह शुद्ध आत्मा को सम्मुख रखकर चलता है। इसलिए आत्मा को पुनः बन्धन में डालने की उसकी वृत्ति नहीं होती। सर्वज्ञानी भगवन्तों का सतत् इसी प्रकार का पुरुषार्थ होता है। वे अटल सिद्धान्त के ज्ञानबल से, विशेष रूप से विषम संयोग या प्रतिकूल परिस्थिति हो तो भी स्वस्थ, शान्त, धीर-गम्भीर और मौन होते जाते हैं और अन्तरंग में अगाध संयम रखकर शीघ्र ही उच्च आत्मदशा में पहुंच कर स्वरूपस्थ हो जाते हैं। ऐसे ज्ञानी वीतराग भगवन्तों के पवित्र चरणचिह्नों पर चलकर तथा ऋणानुबन्ध के अटल अबाधित नियमों को जानकर श्रद्धा सहित उपयोग में लेकर जो भी संसारी जीव चलते हैं, वे मन-वचन-काया के योगों को राग-द्वेष-मुक्त रखने तथा उन पर संयम रखने का अभ्यास करके शुद्ध आत्मस्वरूप में-परमात्मपद में स्थित हो सकते हैं। १. (क) जहा कडे कम्म, तहासि भारे। -सूत्रकृतांग १/५/१/२६ सव्वे सयकम्मकप्पिया। -सूत्रकृतांग, १/२/३/१८ (ख) जं जारिसं पुव्वमकासि कम्म, तमेव आगच्छति संपराए।-सूत्रकृतांग १/५/२/२३ २. 'ऋणानुबन्ध' से साभार अनूदित पृ. ९७ से ९९ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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