SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 557
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ऋणानुबन्ध : स्वरूप, कारण और निवारण ५३७. एकु सच्ची घटना परमार्थ ( मासिक पत्र) में पढ़ी थी । कलकत्ता में एक छोटे-से मकान में भाई-बहन कई वर्षों से रहते थे। मेहनत-मजदूरी करके वे गुजारा चलाते थे। एक दिन देर रात को एक अजनबी पंजाबी व्यापारी आकर दीनतापूर्वक उक्त भाई से रात्रिनिवास करने देने के लिए अनुनय-विनय करने लगा। पहले तो भाई ने बहुत टालमटूल किया, परन्तु उसने गिड़गिड़ाते हुए कहा तो भाई ने उसे एक छोटी-सी कोठरी में सोने को स्थान दे दिया । वह कुछ देर व्यापार तथा अपने पास माल खरीदने के लिए लाई हुई अर्थराशि की बात करने लगा। फिर गाढ़ निद्रा में सो गया। मकान वाले भाई की बहन के मन में पाप जगा । अजनबी मुसाफिर के अशुभ ऋणानुबन्ध के उदय से बहन ने उसकी गर्दन पर छुरा फेरकर मार डाला। थोड़ी ही देर में वह छटपटाकर मर गया। बहन ने उसकी जेब में से नोटों की गड्डी निकाली और सोये हुए भाई को जगाती हुई कहने लगी- 'भाई- भाई ! यह देखो दस हजार के नोटों का बंडल ।' भाई ने पूछताछ की तो उसने सारी घटना कह सुनाई। भाई को विश्वासघात और हत्या के दुहरे पाप के विषय में जानकर बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसने बहन को बहुत डांटा। परन्तु बहन की ममतापूर्ण बातों से बहक कर उसने नोटों का बंडल रख लिया। उस मकान के पास ही कचरे का ढेर पड़ा रहता था । वहीं एक गड्ढा खोद कर भाई-बहन दोनों ने उस लाश को गड्ढे में दबा दिया। ऊपर मिट्टी व कचरा डाल कर जमीन बराबर कर दी। बात आई गई हो गई। उन रुपयों से सराफे की दुकान खोल ली। व्यापार में काफी धन कमाया। बहन तो कुछ दिनों बाद ही चल बसी । भाई ने अपनी शादी कर ली। दो वर्ष बाद एक लड़का हुआ। धीरे-धीरे बड़ा होने लगा। नौजवान होने पर उसकी शादी कर दी। परन्तु शादी के दूसरे दिन से ही उक्त भाई के अशुभ ऋणानुबन्ध के उदय में आने पर वह लड़का बीमार रहने लगा। डॉक्टरों, वैद्यों, हकीमों सबका इलाज करवा लिया। बीमारी मिटने का नाम ही नहीं लेती थी। इलाज में पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा था, किन्तु रोग घटने के बजाय बढ़ता ही जा रहा था। एक दिन सन्ध्या समय उसका पिता लड़के की रुग्णशय्या पर सिरहाने की ओर बैठकर उसका मस्तक सहलाते हुए पूछने लगा- 'बेटा! अब कैसे हो ?' वह बोला'पिताजी! अब मैं ठीक नहीं होऊंगा।' पिता बोला- "ऐसी क्या बात है ? तू चिन्ता मत कर, ठीक हो जाएगा।" पुत्र- " पिताजी ! अब आपके पास कितने रुपये बचे हैं? पिता - "बेटा! खर्च की क्या चिन्ता करता है, मैं कर्ज करके भी तेरा इलाज कराऊँगा, ठीक कैसे नहीं होगा तू?" लड़के ने अपनी आवाज बदलते हुए कहा - " पिताजी ! क्या आप उस पंजाबी को जानते हैं, जो आपके यहाँ एक रात ठहरा था?" पिता बोला-'" तुझे क्या पता, उस पंजाबी का ?" लड़के ने कहा - " वह पंजाबी मैं ही हूँ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy