________________
ऊर्ध्वारोहण के दो मार्ग : उपशमन और क्षपण ५२१ इस प्रकार दर्शनमोहक्षपण के सन्दर्भ में दर्शनमोहसप्तक का क्षय करने के पश्चात् चारित्रमोहनीय का क्षय (क्षपण) करने के लिए यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों को करता है। तीन करणों का स्थान, क्रम कार्य और फल का वर्णन उपशम श्रेणि के निरूपण के सन्दर्भ में कर आए हैं। परन्तु यहाँ (चारित्रमोह) क्षपक श्रेणि के सन्दर्भ में अपूर्वकरण में स्थितिघात आदि के द्वारा अप्रत्याख्यानावरण तथा प्रत्याख्यानावरण कषाय की ८ प्रकृतियों का इस प्रकार क्षय किया जाता है कि अनिवृत्तिकरण के प्रथम समय में उनकी स्थिति पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है। अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीत जाने पर स्त्यानर्द्धित्रिक, नरकद्विक, तिर्यञ्चद्विक, एकेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय-त्रिक (ये चार जातियाँ) स्थावर, आतप, उद्योत, सूक्ष्म और साधारण ; इन सोलह प्रकृतियों की स्थिति उद्वलना-संक्रमण के द्वारा उद्वलना होने पर पल्य के असंख्यातवें भाग मात्र रह जाती है। उसके बाद गुण संक्रमण के द्वारा बंध्यमान प्रकृतियों में उनका प्रक्षेप कर-करके उन्हें बिलकुल क्षीण कर दिया जाता है। ___ यद्यपि अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय का प्रारम्भ पहले ही कर दिया जाता है, तथापि अभी तक क्षीण नहीं हो पाते हैं, अन्तराल में ही पूर्वोक्त सोलह कषायों (षोडश प्रकृतियों) का क्षपण किया जाता है। उनके क्षय के पश्चात् उन आठ कषायों का भी अन्तर्मुहूर्त में ही क्षय कर देता है। तत्पश्चात् नौ
१. दर्शनमोह-क्षपण के सम्बन्ध में 'लब्धिसार' (गा. ११०, १११) में लिखा है-कर्मभूमि
का मनुष्य, तीर्थंकर, केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनमोह के क्षपण का प्रारम्भ करता है। अध:करण के प्रथम समय से लेकर जब तक मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय द्रव्य सम्यक्त्व-प्रकृतिरूप संक्रमण करता है, तब तक के अन्तर्मुहूर्त-काल को दर्शनमोह के क्षपण का प्रारम्भक काल कहा जाता है।और उस प्रारम्भक-काल के अनन्तर समय से लेकर क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति के प्रथम समय तक का काल निष्ठापक कहा जाता है। सो निष्ठापक तो जहाँ प्रारम्भ किया था, वहीं अथवा सौधर्मादि स्वर्गों में, या भोगभूमि में, अथवा धर्मा (घम्मा) नामक प्रथम नरकभूमि में होता है; क्योंकि बद्धायु कृतकृत्य (कृतकरण) वेदक-सम्यग्दृष्टि मरण करके चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है। वह नियम है कि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव अधिक से अधिक चौथे भव में नियम से मोक्ष चला जाता है। कृतकृत्य वेदक का काल अन्तर्मुहूर्त है। उस अन्तर्मुहूर्त में यदि मरण हो तो गोम्मटसार कर्मकाण्ड (५६२ गा.)के अनुसार- उसके प्रथम भाग में मरने पर देवगति में, दूसरे भाग में मरने पर देवगति और मनुष्यगति में, तथा तीसरे भाग में मरने पर देव-मनुष्य-तिर्यञ्चगति में और चौथे भाग में मरने पर चारों गतियों में कृतकृत्य वेदक सम्यक्त्वी उत्पन्न होता है।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org