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________________ ४९० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ संक्रमादि रूप में जो परिणमन हो, वह पारिणामिक भाव है। आत्मा का पारिणामिकभाव ही वह भाव है, जो आत्मा को जड़ (अजीव) द्रव्यों से पृथक् करता है। यह आत्मा का त्रिकाली स्वाभाविक चेतन-परिणाम है, जो इन सबमें अनुस्यूत रहते हुए भी उदय आदि से सर्वथा अस्पृष्ट है। औपशमिकादि चारों भाव कर्मों के उपशमादि से होते हैं, किन्तु पारिणामिक भाव कर्मजन्य नहीं है। इस भाव की विशेषता यह है कि यह अनादि, अनन्त, निरुपाधि, स्वाभाविक और ज्ञायिक है। जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व, ये तीन भाव आत्मा के असाधारण पारिणामिक भाव हैं, क्योंकि ये भाव किसी अन्य द्रव्य में नहीं होते। साधारण-असाधारण पारिणामिक भाव-निर्देश प्रश्न यह है कि अस्तित्व, नित्यत्व और प्रदेशत्व आदि भी तो पारिणामिक भाव हैं। फिर उनका तत्त्वार्थसूत्र में ग्रहण क्यों नहीं किया गया ? इसका समाधान है-कि १. (क) परिणामः स्वभावः प्रयोजनमस्येति पारिणामिक इत्यन्वर्थसंज्ञा। तदभावादनादिद्रव्य-भवन-सम्बन्ध-परिणाम-निमित्तत्वात् पारिणामिका इति। -राजवार्तिक २/७/२/११०/२२ तथा २/७/१६/११३/१७ (ख द्रव्यात्मलााभमात्रहेतुकः परिणामः। पारिणामिकत्वम्-कर्मोदयोपशम-क्षय क्षयोपशमानपेक्षित्वात्। -सर्वार्थसिद्धि २/१/१४९/९ तथा २/७/१६१/२ . (ग) पंचसंग्रह भा. ३, विवेचन, पृ. ९२ (घ) जो चउहिं भावेहिं पुव्वुत्तेहिं वदिरित्तो जीवाजीवगओ सो पारिणामिओ णाम। -धवला ५/१,७, १/१८५/३ (ङ) कम्मज भावातीदं जाणग भावं विसेस आहारं तं परिणामो जीवो अचेयणं भवदि इदराणं। -नयचक्र वृत्ति ३७४ (च) कर्मग्रन्थ भा. ४ (मरुधरकेसरी), पृ. ३२५ (छ) कृत्स्न कर्म-निरपेक्षः प्रोक्तावस्थाचतुष्टयात् आत्मद्रव्यत्वमात्रात्मा भावः स्यात् पारिणामिकः। -पंचाध्यायी (उ.) ९७१ (ज) जैनदर्शन में आत्मविचार, पृ. १२६. (झ) कर्मसिद्धान्त, पृ. ११७ (ब) जैन दर्शन पृ. ३११ (ट) जीव-भव्याभव्यादीनि च। -तत्त्वार्थसूत्र २/७ (ठ) जीवत्वं भव्यत्वमभव्यत्वमिति त्रयोभावाः पारिणामिका अन्यद्रव्यासाधारणा आत्मनो वेदितव्याः। ननु अस्तित्व-नित्यत्व-प्रदेशत्वादयोऽपि भावाः पारिणामिकाः सन्ति अस्तित्वादयः पुनर्जीवाजीव-विषयत्वात् साधारणा इति च शब्देन पृथग्गृह्यन्ते। -राजवार्तिक २/७, १/११०/१९ (ड) पारिणामिकस्त्वनादि-निधनो निरुपाधिः स्वाभाविक एव।। -पंचास्तिकाय (त. प्र.) ५८ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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