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४८८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
जीव की ये सभी औदयिक अवस्थाएँ कर्मोदय- जनित होती हैं, इसलिए देखना है कि कौन-सी अवस्था ( पर्याय) किस-किस कर्म के उदय से होती है?
अज्ञानादि पर्याय: किन-किन कर्मों के उदय से?
अज्ञान (मिथ्यादर्शन) मिथ्यात्व के उदय से होता है। बुद्धिमान्द्यरूप अज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है । असिद्धत्व आठों प्रकार के कर्मों के उदय से होता है। असंयम अर्थात् - अविरति अप्रत्याख्यानावरणीय कर्म के उदय से होती है। लेश्या मनोयोग का परिणाम है और मनःपर्याप्ति नामकर्म का एक भेद हैं। अतः लेश्या का सम्बन्ध नामकर्म के साथ है। कषाय चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होते. हैं। गति गतिनामकर्म के कारण होती है । पुरुषादि वेद वेद-मोहनीय के उदय का परिणाम है। मिथ्यात्व मिथ्यात्व - मोहनीय के उदय का प्रभाव है।
इन सबको भी औदयिक भाव में समझने चाहिए
इस तालिका के अतिरिक्त दर्शनावरण-जन्य निद्रा - पंचक, वेदनीयकर्म से उत्पन्न सुख-दुःख, मोहनीयजन्य हास्यादि छह, आयुष्यकर्म के चार आयुष्य, नामकर्म की प्रकृति - परम्परा, गोत्रकर्मोदय - जन्य, उच्च - नीचगोत्र, ये सब औद्रयिक भाव में समझने चाहिए; क्योंकि किसी भी कर्म के उदय का परिणाम औदयिक भाव में आता है।
औदयिक भाव का कार्य और फल वस्तुतः औदयिक भाव किसी भी कर्म के उदय से ही निष्पन्न होता है। उदय एक प्रकार का आत्मिक मालिन्य ( कालुष्य) है, जो कर्म के विपाकानुभव से होता है । जैसे-मैल के मिल जाने पर जल मलिन हो जाता है । औदयिक भाव जीव का पराभव करते हैं, इसलिए ये बंध के कारण हैं । २
गति नामकर्म के उदय का फल नरकादि चार गतियाँ हैं, कषाय- मोहनीय के उदय से क्रोधादि चार कषाय उत्पन्न होते हैं। वेदमोहनीय के उदय से स्त्री- पुरुष - नपुंसकवेद होता है। मिथ्यात्वमोहनीय के उदय से मिथ्यादर्शन ( तत्त्व का अश्रद्धान) होता है। अज्ञान ( ज्ञानाभाव ) ज्ञानावरणीय कर्म के उदय का फल है । असंयतत्व (विरति का सर्वथा अभाव) अनन्तानुबन्धी आदि १२ प्रकार के चारित्रमोहनीय के उदय का परिणाम है। कृष्ण, नील, कापोत आदि छह लेश्याएँ (कषायोदयरंजित योग
१. जैनदर्शन, पृ. ३१०
२. (क) वही, पृ. ३११
(ख) तत्त्वार्थसूत्र विवेचन २/७ (पं. सुखलालजी), पृ. ४८
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