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औपशमिकादि पांच भावों से मोक्ष की ओर प्रस्थान ४७९
क्षायिकभावापन्न विदेहमुक्त सिद्ध परमात्मा की दृष्टि से 'षट्खण्डागम' में उन्हें निम्नोक्त विशेषणों से विभूषित किया है- 'जो क्षायिक अविपाक - प्रत्ययिक जीव भावबन्ध है, उसका निर्देश इस प्रकार है- वह क्षीणक्रोध, क्षीणमान, क्षीणमाया, क्षीणलोभ, क्षीणराग, क्षीणदोष (द्वेष), क्षीणकषाय, वीतराग, वीतछद्मस्थ, क्षायिकसम्यक्त्वी, क्षायिकचारित्री, क्षायिक दानलब्धिमान्, क्षायिक लाभलब्धि, क्षायिक भोगलब्धि, क्षायिक उपभोगलब्धि तथा क्षायिक वीर्यलब्धि से सम्पन्न, केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, सिद्ध, बुद्ध, परिनिर्वृत, सर्वदुःखान्तकृत् तथा इनके अतिरिक्त इस प्रकार जो भी क्षायिक भाव होते हैं, उनसे युक्त हैं तथा क्षायिक अविपाक - प्रत्ययिक जीवभावबन्ध युक्त हैं । १
क्षायिक भाव भी उपचार से कर्मजनित हैं। 'पंचास्तिकाय' में एक प्रश्न उठाया गया है कि क्षायिक भाव का कर्म से क्या सम्बन्ध है? उसका समाधान किया गया है कि कर्म के बिना जीव को उदय, उपशम, क्षायिक और क्षायोपशमिक, ये चार भाव (चतुर्विध जीवभाव) नहीं होते, इसलिए ये कर्मकृत हैं, क्षायिक भाव तो केवलज्ञानादि रूप है, यद्यपि वह वस्तुवृत्या शुद्ध - बुद्ध, एकमात्र जीव का स्वभाव है, तथापि कर्म के क्षय से उत्पन्न होने के कारण क्षायिक भाव को भी उपचार से कर्मजनित कहा जाता है । २
केवलज्ञानी का औदयिक भाव बन्ध का कारण नहीं है
'धवला' में एक प्रश्न और उठाया गया है तीर्थंकर केवली तथा सामान्य केवली वीतराग तथा भवस्थ अरिहन्त में क्षायिक भाव होते हुए भी अभी भवोपग्राही चार अघातिकर्म शेष होने के कारण औदयिक भाव भी है, और औदयिक भाव को बन्ध
१. जो सो खइओ अविवाग- पच्चइओ जीव-भाव - - बंधोणाम, तस्स इमो णिद्देसो-से • खीणकोहे खीणमाणे खीणमाये खीणलोहे खीणरागे खीणदोसे खीणमोहे खीणकसायवीराय वीयछद्मत्थे खइयसम्मत्तं, खाइयचारित्तं खइया दाणलद्धी, खइया लाहलद्धी, • खइया भोगलद्धी, खइया परिभोगलद्धी, खइया वीरियलद्धी केवलणाणं केवलदंसणं सिद्धे बुद्धे परिणिव्वुदे सव्वदुक्खाणमंतयडेत्ति जे चामण्णे एवमादिया खइया भावा सो सव्वो खइयो अविवाग - पच्चइओ जीवभावबंधोणाम ॥ १८ ॥
-षट्खण्डागम १४३ / ५-६/१८/१५
- पंचास्तिकाय ५८
२. (कं) कम्मेण विणाउदयं जीवस्स ण विज्जदे उवसमं । वा खइयं, खओवसमियं, तम्हाभावं तु कम्मकदं । (ख) क्षायिकभावस्तु केवलज्ञानादिरूपो यद्यपि वस्तुवृत्त्या शुद्ध-बुद्धैकस्वभावस्तथापि कर्म-क्षयेणोत्पन्नत्वादुपचारेण कर्मजनित एव । -वही, ता. वृ. ५६/१०६/१०
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