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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय-उदीरणा प्ररूपणा ४५३ योग्य ४१ प्रकृतियों के साथ तीर्थंकर नामकर्मी को मिलाने से कुल ४२ प्रकृतियों का उदय तेरहवें गुणस्थान में होता है। (१४) चौदहवें अयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय तक १२ प्रकृतियों का उदय रहता है, इसके पश्चात् इनका भी अन्त हो जाता है। तेरहवें गुणस्थान में कथित उदययोग्य ४२ प्रकृतियों में से औदारिक द्विक आदि ३० प्रकृतियों का उदय विच्छेद तेरहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाता है। फलतः पूर्वोक्त ४२ में से ये ३० प्रकृतियाँ कम करने पर सिर्फ १२ कर्मप्रकृतियों का उदय १४वें गुणस्थान के अन्तिम समय रहता है। फिर इनका भी विच्छेद होते ही जीव सर्वथा कर्ममुक्त होकर पूर्ण सिद्ध बुद्ध, मुक्त विदेह होकर अनन्त शाश्वत सुख का स्थान-मोक्ष प्राप्त कर लेता . चौदहवें गुणस्थान में ३० प्रकृतियों का उदय-विच्छेद और १२ प्रकृतियों का उदय - वे तीस कर्मप्रकृतियाँ, जिनका उदय-विच्छेद १३वें गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है, इस प्रकार हैं- औदारिक द्विक (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग), अस्थिरद्विक (अस्थिर नाम, अशुभ नामकर्म), खगतिद्विक (शुभविहायोगति अशुभविहयोगति नामकर्म), प्रत्येकत्रिक (प्रत्येक, स्थिर शुभनामकर्म), संस्थानषट्क (समचतुरस्र अदि ६ संठाण), अगुरुलघु-चतुष्क (अगुरुलघु, उपघात, पराघात और उच्छ्वासनाम), वर्णचतुष्क (वर्ण, गन्ध, रस-स्पर्शनाम), निर्माणनाम, तेजसशरीर कार्मणशरीर, वज्रऋषभनाराच संहनन, दुःस्वर, और सुस्वर नामकर्म तथा सातावेदनीय और असातावेदनीय दोनों में से कोई एक, यों २+२+२+३+६+४+४+६+१=३० प्रकृतियाँ सब मिलाकर होती हैं। फलतः तेरहवें गुणस्थान में उदययोग्य ४२ प्रकृतियों में से इन ३० प्रकृतियों को कम करने पर शेष रही निम्नोक्त १२ प्रकृतियों का उदय १. तित्थं केवलिणि। २, (क) तित्थुदया उरलाऽथिर खगइ-दुग परित्तितिग छ संठाणा। अगुरु लहु-वन्न चउ निमिण-तेय-कम्माइ-संघयणं ॥ २१ ॥ दूसर सूसर सायासाए गयरं च तीस-वुच्छेओ। बारस अजोगि सुभगाइज-जसनयर-वेयणियं ॥ २२ ॥ तसतिग-पणिंदि मणुयाउ-गइ जिणुच्चं ति चरम-समयंता ॥ २३ ॥ -द्वितीय कर्मग्रन्थ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ, गा. २१ से २३ तक विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ९३ से ९६ (ग) तुलना करें- गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) गा. २६१, २७२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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