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________________ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता - उदय - उदीरणा प्ररूपणा ४४५ द्वितीय गुणस्थान में १११ प्रकृतियाँ उदययोग्य : क्यों और कैसे ? (२) दूसरे सास्वादन गुणस्थान में १११ प्रकृतियाँ उदययोग्य मानी जाती हैं। प्रथम गुणस्थान में उदययोग्य जो ११७ प्रकृतियाँ मानी गई हैं, उनमें से सूक्ष्मत्रिक (सूक्ष्म नाम, साधारण नाम और अपर्याप्त नामकर्म), आतप नामकर्म और मिथ्यात्व मोहनीय, ये पांच प्रकृतियाँ मिथ्यात्व के कारण ही उदय में आती हैं। सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का विच्छेद हो जाने से इन पांच प्रकृतियों का उदय नहीं हो सकता । दूसरी युक्ति यह है कि सूक्ष्म नामकर्म का उदय सूक्ष्मजीवों को, साधारण नामकर्म का उदय साधारण जीवों को तथा अपर्याप्त नामकर्म का उदय अपर्याप्त जीवों को ही होता है, मगर सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त जीवों को न तो सास्वादन गुणस्थान प्राप्त होता है और न ही इनमें से कोई सास्वादन - सम्यक्त्व प्राप्त कर पाता है, और न सास्वादन सम्यक्त्व प्राप्त जीव सूक्ष्म, साधारण या अपर्याप्त रूप में पैदा होता है। अभिप्राय यह है कि सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त जीव मिथ्यात्वी ही होते हैं। इसी तरह सास्वादन गुणस्थान में आतप नामकर्म का उदय भी सम्भव नहीं है, क्योंकि शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के बाद बादर पृथ्वीकायिक जीवों के आतप नामकर्म का उदय हो सकता है, पहले नहीं । जो जीव सास्वादन गुणस्थान को पाकर बादर पृथ्वीका में पैदा होते हैं, वे शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने से पहले ही पूर्वप्राप्त सास्वादन सम्यक्त्व का वमन कर देते हैं । अर्थात् - जब बादर पृथ्वीकायिक जीवों को सास्वादन - सम्यक्त्व-प्राप्ति की संभावना होती है, तब आतप नामकर्म का उदय सम्भव नहीं होता, और जब आतप नामकर्म की सम्भावना होती है, तब उनको सास्वादन सम्यक्त्व संभव नहीं होता। इस कारण सास्वादन गुणस्थान में आतप • नामकर्म का उदय नहीं माना जाता। यो प्रथम गुणस्थान की उदययोग्य ११७ प्रकृतियों में से पूर्वोक्त सूक्ष्मादि पांच प्रकृतियाँ कम हो जाने से ११२ प्रकृतियों का उदय द्वितीय गुणस्थान में होना चाहिएथा, किन्तु औपशमिक सम्यक्त्व से पतित (च्युत) होकर सास्वादन गुणस्थान में • आकर टिकने वाला जीव नरकगति में नहीं जाता और नरकगति में जाने वाले जीव को सास्वादन गुणस्थान प्राप्त नहीं होता । अतः इस गुणस्थान में नरकानुपूर्वी का उदय नहीं होता। इस प्रकार प्रथम गुणस्थान के अन्तिम समय में विच्छिन्न होने वाली सूक्ष्म नामकर्म आदि पांच तथा नरकानुपूर्वी, कुल ६ प्रकृतियों को पहले गुणस्थान की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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