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४३६ . कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
मिलाने से सत्तायोग्य कुल प्रकृतियाँ १४८ मानी जाती हैं। इन कर्मप्रकृतियों के स्वरूप की व्याख्या हम कर्मविज्ञान के सप्तमखण्ड (कर्मबन्ध की सार्वभौम व्याख्या) में कर आए हैं। अतः सामान्य से सत्तायोग्य १४८ कर्मप्रकृतियाँ मानी गई हैं । १
दूसरे-तीसरे गुणस्थान के सिवाय पहले से ग्यारहवें गुणस्थान में सत्ता की प्ररूपणा
प्रथम नौ गुणस्थानों में १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता की प्ररूपणा की गई है। अर्थात् प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक में, से दूसरे और तीसरे गुणस्थान को छोड़कर, शेष नौ गुणस्थानों में १४८ कर्मप्रकृतियों की सत्ता की प्ररूपणा की गई है। यह कथन योग्यता और सम्भावना की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि किसी भी जीव के भुज्यमान और बध्यमान, इन दो आयुओं से अधिक आयु की सत्ता हो नहीं सकती, परन्तु योग्यता तो सभी आयु आदि कर्मों की हो सकती है, जिससे बन्धयोग्य सामग्री मिलने पर जो कर्म अभी वर्तमान में नहीं है, उसका भी बन्ध होने से सत्ता अवश्यम्भावी मानी जाती है। अर्थात् वर्तमान में जिस कर्म की स्वरूप ( सद्भाव) सत्ता भले ही न हो, किन्तु भविष्य में उस कर्म के बंधने की योग्यता की सम्भावना हो, ऐसी स्थिति में सम्भवसत्ता की अपेक्षा से १४८ कर्मप्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी जाती हैं। जब बन्धननामकर्म की ५ प्रकृतियों के बदले उसके १५ भेदों को गिनते हैं तो नामकर्म की ९३ के बदले १०३ उत्तरप्रकृतियाँ हो जाती हैं। ऐसी स्थिति में १४८ के बदले १५८ कर्मप्रकृतियाँ सत्तायोग्य मानी जाएँगी।
यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता नहीं मानी जानी चाहिये, क्योंकि सम्यकदृष्टि ही तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध कर सकता है। ऐसी स्थिति में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता प्रथम गुणस्थान में नहीं माननी चाहिए, किन्तु जिस मनुष्य ने पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में नरकायु का बन्ध कर लिया है और बाद में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को प्राप्त करके तीर्थंकर नामकर्म का बन्ध करे तो वह जीव मरते समय सम्यक्त्व का वमन कर नरक में जाय और वहाँ पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करे तो उसके पहले अन्तर्मुहूर्त तक मिथ्यात्व रहता है । इस अपेक्षा से ऐसे जीव के प्रथम गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म की सत्ता मानी जाती है। इस कारण मिथ्यात्व गुणस्थान में १४८ प्रकृतियों की सत्ता मानने में कोई दोषापत्ति नहीं है।
१. (क) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २५ विवेचन, ( मरुधरकेसरी), पृ. १०३, १०४ (ख) द्वितीय कर्मग्रन्थ गा. २५ विवेचन (पं. सुखलाल जी), पृ. ७४
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