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________________ ४२८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ देशसंयम को रोकने वाला अप्रत्याख्यानावरण कषाय है। अतः जब तक उसका उदय रहेगा, तब तक देशसंयम ग्रहण नहीं होने से जीव को पंचम गुणस्थान प्राप्त नहीं हो सकेगा। इस प्रकार चौथे गुणस्थान की बंधयोग्य ७७ प्रकृतियों में से पूर्वोक्त १० प्रकृतियों का चौथे गुणस्थान के अन्त में विच्छेद हो जाने से पांचवें गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। (६) छठे प्रमत्त-संयत गुणस्थान में ६३ (तिरसठ) कर्म प्रकृतियों का बन्ध होता है। पंचम गुणस्थान में बन्ध योग्य पूर्वोक्त ६७ प्रकृतियों में प्रत्याख्यानावरण चतुष्क (प्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान-माया-लोभ) का उदय पांचवें गुणस्थान तक ही होता है और उसके अन्तिम समय में बन्ध-विच्छेद हो जाने से प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि चार कषायों को छोड़कर शेष ६३ प्रकृतियाँ छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान में बन्धयोग्य हैं। यदि उक्त प्रत्याख्यानावरण कषायों का उदय रहता तो छठा गुणस्थान ही प्राप्त नहीं हो पाता। किन्तु प्रत्याख्यानावरणीय क्रोधादि चार कषाय का बन्ध पंचम गुणस्थान के अन्तिम समय में बन्ध-विच्छेद होने से ६७ से ४ प्रकृतियाँ कम होने पर बंधयोग्य ६३ प्रकृतियाँ ही छठे गुणस्थान में रहती हैं। (७) सातवें अप्रमत्त संयत गुणस्थान में ५९ या ५८ कर्मप्रकृतियाँ बन्धयोग्य मानी जाती हैं। वे इस प्रकार हैं- छठे गुणस्थान में बन्धयोग्य ६३ प्रकृतियाँ बताई गईं थीं, उनमें से शोक, अरति, अस्थिरद्विक (अस्थिरनाम और अशुभनाम), अयश:कीर्तिनाम और असातावेदनीय, इन ६ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में हो जाने से सातवें गुणस्थान में ५७ प्रकृतियों का बन्ध होना चाहिए, किन्तु इस गुणस्थान में आहारकद्विक (आहारक शरीर और आहारक १. (क) अयदे बिदिय कसाया वजं ओरालमणुदुमणुवाऊ । देसे तदियकसाया णियमेणिह बंध-वोच्छिण्णा ॥ -गोम्मटसार कर्मकाण्ड गा. ९७ (ख) तेवट्ठि पमत्ते... । -कर्मग्रन्थ भा. २, गा..७ विवेचन (मरुधरकेसरीजी), पृ. ६०-६१ २. (क) "सोग अरइ अथिरदुग अजय अस्सायं । वुच्छिज्ज छच्च सत्त व सुराउं जया निटे ॥७॥ " . गुणसट्ठि अप्पमत्ते सुराउबंधं तु जइ इहामच्छे । अन्नह अट्ठावण्णा जं आहारदुगं बंधे ॥८॥ __-कर्मग्रन्थ भा.२ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ गा. ७-८ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ. ६२-६३ (ग) जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप (आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि), पृ. १६३, १६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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