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४२६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
तिर्यञ्चानुपूर्वी और तिर्यंचायु) स्त्यानर्द्धि-त्रिक (निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, स्त्यानर्द्धि), दुर्भगत्रिक (दुर्भगनाम, दुःस्वरनाम, अनादेयनाम), अनन्तानुबन्धीचतुष्क, (अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ), मध्यम-संस्थानचतुष्क (न्यग्रोधपरिमण्डल-संस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जसंस्थान), मध्यमसंहननचतुष्क (ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच एवं कीलिका-संहनन)। ये २१ और नीचगोत्र, उद्योतनाम, अशुभ-विहायोगतिनाम और स्त्रीवेद, ये ४ मिलाकर कुल पच्चीस प्रकृतियों का बन्ध अनन्तानुबन्धी कषाय के उदय से होता है, और अनन्तानुबन्धी कषाय का उदय सिर्फ पहले और दूसरे गुणस्थान तक ही रहता है; तीसरे आदि आगे के गुणस्थानों में नहीं। इसलिए दूसरे गुणस्थान की बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियों में से तिर्यञ्चत्रिक आदि २५ प्रकृतियों को कम करने से तीसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य ७६ प्रकृतियाँ माननी चाहिए थीं।
किन्तु तृतीय गुणस्थानवी जीव का स्वभाव ऐसा होता है कि उस समय न तो उसकी मृत्यु होती है, और न ही उस दौरान परभव का आयुष्य बांधता है; क्योंकि मिश्रगुणस्थान और मिश्र काययोग की स्थिति में आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं होता। इसलिए आयुकर्म के चार भेदों में से नरकायु का बन्ध पहले गुणस्थान तक और तिर्यञ्चायु का बन्ध दूसरे गुणस्थान तक होने से तथा शेष मनुष्यायु एवं देवायु, इन दो आयुष्यों का इस तृतीय गुणस्थान में बन्ध न होने से तिर्यञ्चत्रिक आदि पूर्वोक्त २५ प्रकृतियों तथा मनुष्यायु एवं देवायु, इन दो प्रकृतियों सहित २७ प्रकृतियों को सासादन गुणस्थान की बन्ध-योग्य १०१ प्रकृतियों में से कम करने पर शेष ७४ कर्मप्रकृतियाँ तीसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य हैं।
(४) अविरतिसम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान में तीर्थंकर (जिन) नाम तथा मनुष्यायु एवं देवायु का बन्ध होने से तृतीय गुणस्थान की ७४ और ये तीन प्रकृतियाँ अधिक होने से ७४+३=७७ कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है। तात्पर्य यह है कि तीसरे गुणस्थान में बन्धयोग्य ७४ प्रकृतियाँ हैं; इस (चतुर्थ) गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का नया विच्छेद नहीं होता है। अतः चौथे गुणस्थान में ७४ प्रकृतियाँ बन्ध योग्य होनी चाहिए थी, किन्तु 'सम्ममेव तित्थबंधो' इस सिद्धान्तानुसार सम्यग्दृष्टि के ही तीर्थंकरनाम कर्म की प्रकृति का बन्ध होता है, अतः चतुर्थ गुणस्थान में तीर्थंकरनाम बन्ध की सम्भावना है। इसी प्रकार नरकायु और तिर्यंचायु का बन्ध
१. (क) अण-मज्झागिइ-संघयण-चउ, निउज्जोय-कुखगइत्थि त्ति ।
पणवीसंतो मीसे चउसयरि दुआउय अबंधा ॥ ५॥ -कर्मग्रन्थ भा. २ (ख) कर्मग्रन्थ भा. २ विवेचन गा. ५ (मरुधरकेसरी), पृ. ५६ से ५८ तक
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