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________________ १७ गुणस्थानों में बन्ध-सत्ता-उदय उदीरणा प्ररूपणा आत्मा पर लगे बन्धादि के संयोग-वियोग का गुणस्थानों द्वारा नापजोख आत्मा का वास्तविक शुद्ध स्वरूप सच्चिदानन्दघन रूप है। जिसे जैनदर्शन की परिभाषा में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त अव्याबाध सुख (आत्मिक आनन्द) और अनन्त वीर्य (आत्मशक्ति) कहा गया है। आत्मा के इस स्वरूप को विकृत, आवृत, कुण्ठित और सुषुप्त करने का कार्य कर्मों का है। कर्मों का बन्धन आत्मा को संसार के कारागृह में जकड़ कर डाल देता है, किसी का बन्धन तीव्र, तीव्रतर, तीव्रतम होता है, और किसी का मन्द, मन्दतर और मन्दतम। कर्मावरण की घनघोर घटाएँ जब आत्मारूपी सूर्य पर गहरी छा जाती हैं, तब आत्मा की उपर्युक्त ज्ञानादि शक्तियों की ज्योति मन्द हो जाती है। परन्तु ज्यों-ज्यों आत्मा उन कर्मावरणों को अपने संत् पुरुषार्थ से हटाने, घटाने, रोकने और मिटाने का पुरुषार्थ करता है त्यो-त्यों वह कर्मावरण मन्द, मन्दतर होता जाता है, कर्मों की जकड़ शिथिल होती जाती है; जीव के कर्ममय संसार कारावास की कालसीमा भी उत्तरोत्तर कम होती जाती है; और आत्मा की पूर्वोक्त सुषुप्त शक्तियाँ जागृत और प्रकट होती जाती हैं। आत्मा की विशुद्धि एवं अशुद्धि अथवा पूर्वोक्त शक्तियों के विकास और ह्रास को गुणस्थानों के माध्यम से नापा जाता है, और बन्ध की न्यूनाधिकता के बिन्दुओं से उसके उत्थानपतन का नाप-जोख किया जाता है। गुणस्थान चौदह हैं। उनके स्वरूप, क्रम और कार्य का विश्लेषण हम पिछले निबन्धों में कर आए हैं। और यह भी पिछले पृष्ठों में हम अंकित कर आए हैं कि किस गुणस्थान में कर्म की आठ मूलप्रकृतियों में से कितनी प्रकृतियों की बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा होती है? अतः इस निबन्ध में हम यह बताना चाहते हैं कि किस गुणस्थान में कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ कितनी बंधती हैं, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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