SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता २१ आयुक्षय हो जाने से मरकर कोई जीव अनुत्तरविमानवासी देवों में जन्म लेता है, वहाँ १७ प्रकृतियों का बन्ध करता है तो दूसरा अवक्तव्यस्थान होता है । १ और नामकर्म के बन्धस्थान- नामकर्म की बन्धयोग्य ६७ प्रकृतियाँ हैं, किन्तु एक समय में एक जीव को सभी प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। एक समय में एक जीव के तेईस, पच्चीस आदि प्रकृतियाँ ही बंधती हैं। इसलिए नामकर्म के ८ स्थान बतलाये गए हैं - ( १ ) तेईस प्रकृतिरूप, (२) पच्चीस प्रकृतिरूप, (३) छब्बीस प्रकृतिरूप, (४) अट्ठाइस प्रकृतिरूप, (५) उनतीस प्रकृतिरूप, (६) तीस प्रकृतिरूप, (७) इकत्तीस प्रकृतिरूप और (८) एक प्रकृतिरूप । इससे पूर्व जिन बन्धस्थानों को बतलाया गया था, वे सब कर्म जीवविपाकी थे, जीव के आत्मिक गुणों पर ही उनका प्रभाव पड़ता था, किन्तु नामकर्म का अधिकांश भाग पुद्गलविपाकी है, और उसका अधिकतर उपयोग जीवों की शारीरिक रचना में ही होता है। अत: विभिन्न जीवों की अपेक्षा से एक ही बन्धस्थान की अवान्तर प्रकृतियों में अन्तर पड़ता है । (१) वर्णचतुष्क, तैजस, कार्मण, अगुरुलघु, निर्माण और उपघात, नामकर्म की ये नौ प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं। चारों गति के जीवों के आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक इनका बन्ध अवश्य होता है। इनके बाद तिर्यञ्चगति, तिर्यंचानुपूर्वी, एकेन्द्रिय जाति, औदारिकं शरीर, हुण्डक संस्थान, स्थावर, अपर्याप्त, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, अनादेय, अयशःकीर्ति, सूक्ष्म - बादर में से कोई एक, साधारण- प्रत्येक में से कोई एक, इन १४ प्रकृतियों को पूर्वोक्त ९ ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियों के साथ मिलाने से १४ +९= २३ प्रकृतियों का प्रथम बन्धस्थान होता है । ये २३ प्रकृतियाँ एकेन्द्रियप्रायोग्य हैं, जिन्हें एकेन्द्रिय, तीन विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय - मिथ्यात्वी बांधता है। इस बन्धस्थान का बन्धक जीव मरकर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में ही जन्म लेता है। (२) (क) पूर्वोक्त २३ प्रकृतियों में से अपर्याप्त प्रकृति को कम करके तथा पर्याप्त, उच्छ्वास और पराघात प्रकृतियों को मिलाने से एकेन्द्रिय- पर्याप्त - सहित पच्चीस प्रकृतियों का द्वितीय बन्धस्थान होता है। १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ गा. २४ व्याख्या ( मरुधरकेसरीजी), पृ. १०३ से १०७ (ख) पंचम कर्मग्रन्थ व्याख्या (पं. कैलाशचन्द्रजी), पृ. ७७-७९ (ग) दिगम्बर - परम्परा में मोहनीय कर्म के बन्धस्थान और भुजाकारादि बन्ध में कुछ अन्तर है। जैसा कि गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४६८ में लिखा है- मोहनीय कर्म के १० बन्धस्थानों में २० भुजाकार, ११ अल्पतर, ३३ अवस्थित और २ अवक्तव्यबन्ध हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy