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________________ ३८२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रारम्भ के गुणस्थानत्रयवर्ती जीवों की बहिरात्म संज्ञा प्रारम्भ के तीन गुणस्थान वाले जीव की बहिरात्मा संज्ञा है। इनमें से प्रथम गुणस्थानवर्ती जीव पूर्णरूप से बहिरात्मा हैं। द्वितीय गुणस्थानवी जीव में बहिरात्मतत्त्व प्रथम-गुणस्थानवर्ती की अपेक्षा कम है, जबकि तृतीय-गुणस्थानवर्ती जीव में द्वितीय गुणस्थान वाले की अपेक्षा बहिरात्मभाव और भी कम है। __ अन्तरात्मभाव का प्रारम्भ और उसकी सर्वोत्कृष्ट अवस्था . चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती अविरत-सम्यग्दृष्टि जीव में अन्तरात्मभाव का प्रारम्भ होता है। ऐसा अन्तरात्मा सम्यक्त्वी जीव ज्यों-ज्यों अन्तर्मुख होकर अपनी दैनिक प्रवृत्तियों का अवलोकन करता है, त्यों-त्यों उसे वे बाह्य प्रवृत्तियाँ अशान्ति, दुःख, असंतोष एवं हानि की कारण, तथा अशाश्वत एवं दुःखप्रद प्रतीत होने लगती हैं. और उसके विपरीत आन्तरिक प्रवृत्तियाँ उसे शान्तिदायिनी लगती हैं। ऐसी स्थिति में जब वह अपनी असत्-प्रवृत्तियों के त्याग की ओर उन्मुख होता है और स्थूल प्राणातिपात प्रभृति पापों का परित्याग करता है, और अन्तरात्मतत्व की ऐसी श्रेणी पर पहुँचता है, जिस अवस्था को श्रावक, उपासक या श्रमणोपासक कहते हैं। इसके पश्चात् जब उसकी विचार-आचार धारा और अधिक,निर्मल होती है, तब वह यह अनुभव करने लगता है, कि पंचेन्द्रिय-विषयों के प्रति राग-द्वेष, इष्ट वस्तु के संयोग और वियोग तथा इष्ट वस्तु के वियोग और अनिष्ट वस्तु के संयोग के प्रति क्रमशः प्रियता-अप्रियता की, अच्छे-बुरे की, मोह-द्रोह की, आसक्ति-घृणा की वृत्ति की, एवं सांसारिक वस्तुओं के प्रति मूर्छा-ममता के परित्याग में ही सच्ची शान्ति है, उनके संग्रह एवं ममत्व में नहीं, तब वह उक्त वस्तुओं का तथा सांसारिक मोहबन्धनों एवं कौटुम्बिक स्नेहपाश से मुक्त होने का उपक्रम करता है। फलत: घरबार, कुटुम्ब-कबीला, धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद आदि सबका परित्याग कर श्रमणधर्म स्वीकार करता है, सर्वविरतिचारित्र अपनाता है। पांच महाव्रत एवं पंच समिति-त्रिगुप्ति आदि पूर्ण संयम को अंगीकार करता है। यह अन्तरात्मा की तृतीय श्रेणी है। यद्यपि बीच-बीच में इसमें प्रमादावस्था आती है। इसीलिए इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान कहते हैं। (पृष्ठ ३७६ का शेष) (ग) अन्ये तु मिथ्यादर्शनादि भाव-परिणतो बाह्यात्मा, सम्यग्दर्शनादि परिणतस्त्वन्तरात्मा, केवलज्ञानादि-परिणतस्तु परमात्मा। तत्राद्यगुणस्थानत्रये बाह्यात्मा, ततः परं क्षीणमोह-गुणस्थानं यावदन्तरात्मा, तथा व्यक्त्या बाह्यात्मा, शक्त्या परमात्माऽन्तरात्मा च। व्यक्त्या अन्तरात्मा तु शक्त्या परमात्मा अनुभूतपूर्वनयेन बाह्यात्मा, शक्त्या चं। -अध्यात्म-मत-परीक्षा गा० १२५ टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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