SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाढ़ बन्धन से पूर्ण मुक्ति तक के चौदह सोपान ३७५ संसार का एकमात्र कारण मोह है। जिसके सभी मोहजनित संस्कारों का नि:शेष नाश हो जाने के कारण अब वह कर्मोपाधिक जन्म-मरण रूप संसार छूट जाता है। द्वितीय तृतीय गुणस्थान का स्वरूप और विश्लेषण यह चौदह गुणस्थानों में से बारह गुणस्थानों का संक्षिप्त विश्लेषण हुआ। इसमें दूसरे और तीसरे गुणस्थान का वर्णन अवशेष रह गया था, वह इस प्रकार हैसम्यक्त्व अथवा तत्वज्ञान वाली ऊपर की चतुर्थ गुणस्थान आदि भूमिकाओं के राजमार्ग से च्युत होकर जब कोई आत्मा तत्वज्ञान शून्य या मिथ्यादृष्टि वाली प्रथम भूमिका से उन्मार्ग की ओर झुकता है, तब बीच में अध:पतनोन्मुख आत्मा की जो अवस्था होती है, वही दूसरा गुणस्थान है। यद्यपि इस गुणस्थान में प्रथम गुणस्थान की अपेक्षा आत्मशुद्धि अवश्य कुछ अधिक होती है। इसीलिए इसका क्रम पहले गुणस्थान के बाद रखा गया है, फिर भी यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि इस गुणस्थान को आध्यात्मिक उत्क्रान्ति का कारण नहीं कहा जा सकता; क्योंकि प्रथम गुणस्थान को छोड़कर उत्क्रान्ति करने वाला जीव इस दूसरे गुणस्थान को सीधे तौर से (Direct) प्राप्त नहीं कर सकता, किन्तु ऊपर के गुणस्थानों से गिरने वाला जीव ही इसका अधिकारी बनता है। अधःपतन जब भी होता है, तब मोह के उद्रेक से होता है। अतः इस गुणस्थान के समय मोह की तीव्र काषायिक शक्ति का आविर्भाव पाया जाता है। जिस प्रकार मधुर पदार्थ खाने के बाद जब वमन हो जाता है, तब मुख में एक प्रकार का विलक्षण स्वाद मालूम होता है, जो न तो अत्यन्त मधुर होता है, और न अत्यन्त खट्टा (अम्ल); इसी प्रकार के विलक्षण आध्यात्मिक स्वाद की अनुभूति दूसरे गुणस्थान में होती है। इसका कारण यह है कि उस समय आत्मा न तो तत्त्वज्ञान की निश्चित भूमिका पर होता है, और न ही तत्त्वज्ञान शून्य निश्चित भूमिका पर। अथवा जैसे कोई व्यक्ति चढ़ने की सीढ़ियों से फिसल कर जब तक जमीन पर आकर नहीं ठहर जाता, तब तक बीच में एक विलक्षण अवस्था का अनुभव करता है, वैसी ही विलक्षण आध्यात्मिक अवस्था का अनुभव सम्यक्त्व के ऊपर के गुणस्थानों से गिरकर मिथ्यात्व को पाने तक में-बीच में रहने वाला. द्वितीय गुणस्थानवर्ती जीव करता है। और यह बात अनुभव सिद्ध भी है कि जब कोई व्यक्ति किसी निश्चित उन्नत-अवस्था से गिरकर एकदम नीचे की अवनत-अवस्था तक न पहुंचकर बीच में ही ठहर जाता है, तब एक विलक्षण स्थिति की अनुभूति उसे होती १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी) से साभार, पृ. २६, २७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy