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३७० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ ।
और इससे आगे की जितनी भी भूमिकाएँ-पंचम आदि गुणस्थान हैं, वे सब सम्यग्दृष्टि वाली हैं। अब तक जिस पौद्गलिक बाह्य सुख के लिये मैं लालायित रहता था, वह परिणाम-विरस, अस्थिर एवं परिमित है, परिणाम-सुन्दर, सुस्थिर, अपरिमित एवं शाश्वत सुख (अव्याबाध आत्मिक सुख) स्वरूप-प्राप्ति में ही है। मैंने मोह की प्रधान शक्ति दर्शनमोह पर विजय प्राप्त करके उसकी शक्ति को शिथिल कर. दिया है, इससे मुझे स्व-रूप-दर्शन तो हुआ, परन्तु जब तक उसकी दूसरी शक्तिचारित्रमोह को शिथिल न किया जाय, तब तक स्वरूप-प्राप्ति या स्वरूप में स्थिति नहीं हो सकती। इसलिए वह मोह की दूसरी शक्ति को शिथिल या मन्दं करने के लिए पुरुषार्थ करता है। जब वह उस शक्ति को अंशतः शिथिल कर पाता है, तब उसकी और भी आध्यात्मिक उत्क्रान्ति हो जाती है। इसमें अंशतः स्वरूप-स्थिरता या अंशतः परपरिणति त्याग की पंचम भूमिका प्राप्त होने से चतुर्थ भूमिका की अपेक्षा अधिक शान्ति प्राप्त होती है। इस पंचम भूमिका का नाम पंचम देशविरति गुणस्थान
पंचम देशविरति गुणस्थान से छठे सर्वविरति गुणस्थान प्राप्ति की चेष्टा इस पंचम गुणस्थान से विकासगामी आत्मा को यह विचार होने लगता है कि यदि अल्पविरति से ही इतनी अधिक शान्ति प्राप्त हुई है, तब फिर सर्वविरति से, यानी ज्ञाताद्रष्टा बनकर परभावों के सर्वथा परित्याग से कितनी शान्ति प्राप्त होगी? इस स्वरूपलक्ष्यी चिन्तन से प्रेरित होकर तथा प्राप्त आध्यात्मिक शान्ति की अनुभूति से शक्तिमान् होकर वह विकासगामी आत्मा ऊर्ध्वारोहण करके चारित्रमोह को अधिकांश में शिथिल करके पहले की अपेक्षा अधिक स्वरूप-स्थिरता या स्वरूपलाभ प्राप्त करने का पुरुषार्थ करता है। इस चेष्टा में सफलता प्राप्त होते ही उसे सर्वविरति-संयम प्राप्त होता है। इसमें पौद्गलिक भावों पर मूर्छा-आसक्ति नहीं रहती। उसका सारा समय स्वरूप की अभिव्यक्ति करने के कार्य में ही व्यय होता है। अतः प्रमत्त-संयत नामक सर्वविरतिरूप छठा गुणस्थान प्राप्त कर लेता है। इसमें आत्म-कल्याण के अतिरिक्त जनकल्याण की भावना या विश्वात्म-कल्याण की भावना तथा तदंनुकूल प्रवृत्ति भी होती है। इस कारण यदाकदा बीच-बीच में मद, विषय, कषाय, विकथा, निन्दा, ईर्ष्या आदि प्रमाद भी थोड़ी-बहुत मात्रा में आ जाता
यद्यपि पंचम गुणस्थान की अपेक्षा छठे गुणस्थान में स्वरूप-अभिव्यक्ति अधिक होने से विकासगामी आत्मा को पहले की अपेक्षा अधिक आध्यात्मिक शान्ति मिलती
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी) से साभार, पृ. २२, २३
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