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________________ कर्मबन्धों की विविधता एवं विचित्रता १९ बन्ध करके जब कोई जीव अपूर्वकरण गुणस्थान के द्वितीय भाग से नीचे आकर ६ प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब पहला भूयस्कारबन्ध होता है । (२) वहाँ से गिरकर जब नौ प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब दूसरा भूयस्कार बन्ध होता है। इस प्रकार दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों में दो भूयस्कार बन्ध होते हैं । इसी तरह दर्शनावरण कर्म की उत्तरप्रकृतियों में अल्पतरबन्ध भी दो ही होते हैं। क्योंकि अल्पतरबन्ध भूयस्कारबन्ध से ठीक विपरीत होते हैं । (१) जब कोई जीव नीचे के गुणस्थानों में ९ प्रकृतियों का बन्ध करके तीसरे आदि गुणस्थानों में ६ प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब प्रथम अल्पतरबन्ध होता है । (२) जब ६ का बन्ध करके ४ का बन्ध करता है, तब दूसरा अल्पतरबन्ध होता है । लेकिन अवस्थितबन्ध तीन ही होते है, क्योंकि दर्शनावरण कर्म के बन्धस्थान तीन ही होते हैं। अवक्तव्यबन्ध दो होते हैं - (१) ग्यारहवें गुणस्थान में दर्शनावरण का बन्ध बिलकुल न करके कोई जीव वहाँ से गिरकर दसवें गुणस्थान में ४ प्रकृतियों का बन्ध करता है, तब प्रथम अवक्तव्यबन्ध होता है । (२) जब ग्यारहवें गुणस्थान में मरकर अनुत्तरविमानवासी देवों में उत्त्पन्न होता है, तब वहाँ प्रथम समय में दर्शनावरण कर्म की ६ प्रकृतियों का बन्ध करता है । यह दूसरा अवक्तव्यबन्ध है ।१ मोहनीय कर्म के बन्धस्थान - मोहनीय कर्म की उत्तरप्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं। उनमें से सम्यग् -मिथ्यात्व और सम्यक्त्व - मोहनीय का बन्ध न होने से बंध योग्य २६ प्रकृतियाँ हैं । उनमें बाईस, इक्कीस, सत्रह, तेरह, नौ, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रकृतिक, यों कुल दस बन्धस्थान हैं । वे इस प्रकार हैं-तीन वेदों में से कोई एक वेद का तथा हास्य-रतिं, शोक-अरति इन दो युगलों में से एक समय में एक ही युगल का. बंध होता है, अतः मोहनीय कर्म की सम्यग् - मिथ्यात्व, सम्यक्त्व - मोहनीय, तीन वेदों में से कोई एक वेद, हास्यादि दो युगलों में से कोई एक युगल, यों ६ प्रकृतियों को कम कर देने से शेष २२ प्रकृतियाँ ही बन्ध को प्राप्त होती हैं। यह प्रथम बन्धस्थान है। दूसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व के सिवाय शेष २१ प्रकृतियों का, तीसरे, चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी कषाय चतुष्क न बंधने से शेष १७ का, पांचवें गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरणीय चतुष्क का बन्ध न होने से शेष १३ प्रकृतियों का बन्ध होता है, ये क्रमशः दूसरे, तीसरे और चौथे बन्धस्थान हैं। १. पंचम कर्मग्रन्थ गा. २४ की व्याख्या ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ९९ से १०३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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