SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 388
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ पुरुषार्थ की दिशा और गति संसाराभिमुखी न होकर मोक्षाभिमुखी हो जाती हैं। अर्थात्-प्रयत्न की गति उलटी न होकर सीधी हो जाती है। आशय यह है कि विवेकी बनकर कर्तव्य - अकर्तव्य का, आत्मा के हित-अहित का वास्तविक भान हो जाता है । इसी दशा को जैनशास्त्र में अन्तरात्म भाव कहते हैं । इस अवस्था को प्राप्त करके विकासगामी आत्मा अपने अंदर विद्यमान सूक्ष्म और सहज शुद्ध परमात्म भाव को देखने लगता है। आशय यह है कि अन्तरात्म भाव आत्म- मन्दिर का गर्भद्वार है, जिसमें प्रविष्ट होकर उस मन्दिर में विद्यमान परमात्म भाव-रूप निश्चयदृष्टि से शुद्ध आत्मदेव का दर्शन किया जा सकता है। चतुर्थ गुणस्थान : अविरत सम्यग्दृष्टि-प्राप्ति का अवर्णनीय आनन्द अनादिकालिक मिथ्यात्व को तोड़ कर, तथा निविड़ रागद्वेष की ग्रन्थि को भेद कर जीव जब प्रथम बार सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, तब उसे कितना आनन्द होता है ? यह अवर्णनीय है। सचमुच, अपूर्वकरण की प्रक्रिया द्वारा रागद्वेष की ग्रन्थि का भेदन करके जीव जब अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान में पहुँच जाता है, अर्थात्-अनन्तकाल के संसार परिभ्रमण में जीव जो मिथ्यात्व के अन्धकार से निकल कर सम्यक्त्व प्राप्ति की - चतुर्थ गुणस्थान की सिद्धि प्राप्त करता है, उसका आनन्द असीम और अनिर्वचनीय क्यों नहीं होगा ? योगबिन्दु में आचार्य हरिभद्रसूरि इसे तीन दृष्टान्तों द्वारा समझाते हैं- (१) जैसे - जन्मान्ध पुरुष को, जिसने जीवन में कभी भी रूप, रंग, प्रकाश आदि की दुनिया देखी ही न हो, उसे योगानुयोग, अकस्मात् किसी दैवी चमत्कारवश आँखें खुल जाने पर जिस आनन्द की अनुभूति होती है, वह अपूर्व व अनुपम होती है; ठीक इसी प्रकार अनन्त - पुद्गल - परावर्तनकाल में, अनन्त जन्म तक अनादि मिथ्यात्व के कारण, जिसके सम्यग्दर्शनरूपी नयन युगल नष्ट-से हो चुके थे, जो वर्षों से सत्यतत्व को देख ही नहीं सका था, ऐसे भवाभिनन्दी जीव को योगानुयोग तथाभव्यत्व परिपक्व होने पर, यथाप्रवृत्तकरण - अपूर्वकरणादि तीनों करणों के माध्यम से ग्रन्थि भेद होने पर सम्यग्दृष्टि रूपी जो आँखें खुलती हैं, उससे मिथ्यात्वान्धकार का नाश तथा सत्य तत्वों के प्रति जो श्रद्धान होता है, उसका आनन्द जन्मान्ध को आँखें मिलने की अपेक्षा भी अनेक गुना होता है। (२) मान लो, एक व्यक्ति भयंकर कुष्ट रोग से पीड़ित और संतप्त है, उसे शीतोपचार आदि किसी औषधि - विशेष से अचानक चमत्कार के समान उस रोग से मुक्ति मिल जाती है, तब उस रोगी को जैसा आनन्द होता है, वैसा ही आनन्द, १. (क) चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी), पृ० २१ (ख) कर्म की गति न्यारी भा. १, पृ. ८० Jain Education International For Personal & Private Use Only.. www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy