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३६६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ . की अति तीव्रता को मिटा देने पर दर्शनमोह पर विजय पाना आसान हो जाता है। दर्शनमोह को जीतते ही पहला गुणस्थान समाप्त हो जाता है।
____ अनिवृत्तिकरण कब, कैसा और कैसे-कैसे? जीव अपूर्वकरण के द्वारा कोद्रव आदि धान्य के समान मिथ्यात्व के तीन पुंज करता है-अविशुद्ध, अर्धशुद्ध और शुद्ध। उसके पश्चात् सम्यक्त्व की प्राप्ति तो अनिवृत्तिकरण से होती है। अनिवृत्ति-अर्थात्-जिस करण के करने पर वापस निवृत्ति-लौटना न हो, ऐसा करण यानी आत्मा का शुद्ध प्रबल परिणाम। आत्मा का ऐसा विशुद्ध अध्यवसाय विशेष रूप करण, जिससे सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना जीव निवृत्त नहीं होता, उसे अनिवृत्तिकरण कहते हैं।
.अपूर्वकरण से जीवग्रन्थि भेद करके आगे बढ़ता है और अनिवृत्तिकरण से सम्यक्त्व को प्राप्त करके स्थिर होता है। अतः सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना पीछे न हटने की प्रतिज्ञारूप आत्मा के विशुद्ध अध्यवसाय रूप संकल्प अनिवृत्तिकरण है। यह अपूर्वकरण का कार्य है।
अपूर्वकरण के शीघ्र पश्चात् आत्मशुद्धि और वीर्योल्लास की मात्रा कुछ अधिक बढ़ती है, तब आत्मा मोह की प्रधानभूत शक्ति-दर्शनमोह पर अवश्यमेव विजय प्राप्त करता है। इस विजयकारिणी आत्मशुद्धि को जैनकर्मविज्ञान में अनिवृत्तिकरण कहा है-क्योंकि इतनी आत्मशुद्धि के हो जाने पर आत्मा दर्शनमोह पर विजय पाये बिना नहीं रहता; अर्थात्-वह पीछे नहीं हटता। इसका समय अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है। यह अन्तिम करण है।
अनिवृत्तिकरण की प्रक्रिया के बीच में अन्तरकरण : स्वरूप और कार्य अनिवृत्तिकरण में सतत दीर्घकालिक स्थिति के दो भाग किये जाते हैं। इससे बीच में जो अन्तर पड़ता है, उसे अन्तरकरण कहते हैं। अनिवृत्तिकरण-काल के क्रियाकाल के अन्तर्मुहूर्त को अनिवृत्तिकरण तथा निष्ठाकाल के अन्तर्मुहूर्त को अन्तरकरण माना जाता है। दोनों का जो संयुक्त काल होता है, वह भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है, परन्तु उसे सम्पूर्ण अन्तर्मुहूर्त कहते हैं। अन्तरकरण द्वारा मिथ्यात्व के किये हुए दो भागों में से छोटे पुंजरूप मिथ्यात्व-मोहनीय-कर्म-दलिकों का अन्तर्मुहूर्त में क्षय कर देता है। फिर अनिवृत्तिकरण के ही इस अन्तरकरण. रूप निष्ठाकाल में
१. चतुर्थ कर्मग्रन्थ प्रस्तावना (पं. सुखलाल जी), पृ. २०, २१ २. अपुव्वेणं तिपुंजं मिच्छत्तं कुणइ कोद्दवोवमया।
अनियट्टीकरणेणं उ सो सव्वदंसणं लहइ॥
-विशेषावश्यक भाष्य
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