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३२८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
(११) उपशान्तमोह गुणस्थान: स्वरूप, कार्य और अधिकारी
यह गुणस्थान आत्मविकास की वह अवस्था है, जहाँ समस्त मोहनीय कर्म का उपशमन हो जाता है। इस गुणस्थानवर्ती साधक के समस्त कषायों और नोकषायों का उपशमन इस प्रकार हो जाता है, जिस प्रकार निर्मली ( कंतक) या फिटकरी से युक्त जल का मल भाग, अथवा शरद् ऋतु में तालाब के जल में कीचड़ नीचे शान्त होकर बैठ जाती है और स्वच्छ जल ऊपर रह जाता है; वैसे ही उपशम श्रेणी में शुक्ल ध्यान से समस्त मोहनीय (दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय) कर्म जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक अन्तर्मुहूर्त के लिए उपशान्त हो जाने से आत्मा विशुद्ध हो जाता है। उस जीव के परिणामों में अमुक काल तक एकदम वीतरागता, निर्मलता और पवित्रता आ जाती है। अर्थात् - इस गुणस्थानवर्ती जीव के सत्ता में रहे हुए मोहनीय कर्म का उक्त काल तक सर्वथा उपशमन हो जाता है। इस कारण इस गुणस्थान में संक्रमण, उद्वर्तन आदि करण तथा विपाकोदय या प्रदेशोदय कुछ भी प्रवृत्त नहीं होता । अतः इस गुणस्थान में मोहनीय कर्म की सत्ता तो है, परन्तु उसका उदय नहीं होता। मोहनीय कर्म के उपशमन से इस गुणस्थान में आत्मा के परिणाम अमुक काल तक निर्मल हो जाते हैं । १
उपशान्त कषाय, वीतराग और छद्मस्थ गुणस्थान कैसे सार्थक?
इस गुणस्थान का परिष्कृत नाम उपशान्त-कषाय- वीतराग - छद्मस्थ गुणस्थान है। जिनके कषाय उपशान्त हो गए हैं, जिनमें राग का भी सर्वथा उदय नहीं हैं, तथा जिनको छद्म (आवरणभूत घातिकर्म) लगे हुए हैं, वे जीव उपशान्त - कषायवीतराग - छद्मस्थ हैं। उनके स्वरूप - ( अवस्था) विशेष को उपशान्त - कषायछद्मस्थ-वीतराग गुणस्थान कहते हैं।
प्रश्न होता है- 'उपशान्त कषाय' इतना कह देने से ही इस गुणस्थान का बोध हो जाता है, फिर अन्य दो विशेषण क्यों लगाए गए हैं?
समाधान यह है कि ये तीनों विशेषण सार्थक हैं। यद्यपि 'उपशान्त - कषाय वीतराग-गुणस्थान' इतना कहने से ग्यारहवें गुणस्थान का तो बोध हो जाता है, किन्तु
१. (क) गोम्मटसार ( जीवकाण्ड) गा. ६१
(ख) उपशान्ताः साकल्येन उदयायोग्याः कृताः कषायाः नोकषायाः येनाऽसौ उपशान्त-कषायः, इति निरुक्ततया अत्यन्त प्रसन्नचित्तता सूचिता ।
- गोम्मटसार (जीवकाण्ड) मन्द प्रबोधिनी टीका, पृ. १८८
(ग) आत्मतत्वविचार, पृ. ४९४
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