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________________ १४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ में। किन्तु पतन क्रमशः विहित होने से दसवें से सीधा सातवें गुणस्थान में आ नहीं सकता, वह दसवें से सीधा क्रमशः नौवें गुणस्थान में ही आ सकता है। अतः यह तीसरा भूयस्कार बन्ध भी नहीं बन सकता। अतः कर्म सिद्धान्तविरुद्ध ये तीनों भूयस्कार बन्ध सम्भव नहीं हैं। अब रहा मरण की अपेक्षा से आदि के दो भूयस्कार बन्धों की सम्भावना । सो ग्यारहवें गुणस्थान में यदि मरण हो तो जीव नियमानुसार देवगति में ही जन्म लेता है। और वहाँ सात ही कर्मों का बन्ध करता है तथा वहाँ छह मास की आयु शेष रहने पर ही आयु का बन्ध होता है। अतः मरण की अपेक्षा से एक का बन्ध करके आठ का बन्ध कर सकना सम्भव नहीं है। अतः यह भूयस्कार बन्ध नहीं बन सकता । किन्तु एक को बाँधकर ६ का बन्धरूपं भूयस्कार सम्भव है, तो भी बन्धस्थान सात का ही रहता है, बन्धस्थान का भेद होता तो भूयस्कार अलग से माना जाता। इस प्रकार उपशमश्रेणी से उतरने पर उक्त तीन ही भूयस्कार चार बन्धस्थानों में होते हैं। अल्पतरबन्ध : स्वरूप और प्रकार अल्पतरबन्ध-अल्पतरबन्ध भूयस्कारबन्ध से बिलकुल उलटा होता है। अधिक कर्मों का बन्ध करके कम कर्मों का बन्ध करना अल्पतरबन्ध कहलाता है। अल्पतरबन्ध भी भूयस्कारबन्ध की तरह तीन ही होते हैं प्रथम - आयुकर्म के बन्धकाल में आठ कर्मों का बन्ध करके जब जीव सात कर्मों का बन्ध करता है, तब पहला अल्पतरबन्ध होता है। द्वितीय- नौवें गुणस्थान में ७ कर्मों का बन्ध करके जब जीव दसवें गुणस्थान के प्रथम समय में मोहनीय कर्म के सिवाय शेष ६ कर्मों का बन्ध करता है, तब दूसरा अल्पतरबन्ध होता है। तृतीय- दसवें गुणस्थान में ६ कर्मों का बन्ध करके जब जीव ग्यारहवें या बारहवें गुणस्थान में एक कर्म का बन्ध करता है, तब तीसरा अल्पतरबन्ध होता है। यहाँ भी आठ का बन्ध करके छह का, एक का, और सात का बन्ध करके एक का बन्धरूप अल्पतबन्धत्रय नहीं हो सकते हैं; क्योंकि अप्रमत्त और अनिवृत्तिकरण (बादर) गुणस्थान से जीव एकदम ग्यारहवें गुणस्थान में नहीं जा सकता और न ही अप्रमत्त गुणस्थान से एकदम दसवें गुणस्थान में जा सकता है। अतः अल्पतर बन्ध भी तीन ही जानने चाहिए । १. बद्धाऊ पडिवन्नो सेढिगओ य पसंतमोहो वा । जइ कुणइ कोइ कालं, वच्चइ तोऽणुत्तर - सुरेसु ॥ Jain Education International - विशेषावश्यक भाष्य १३११ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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