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३१४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रमाद माना जाता है। वैसे तो सातवें से दसवें गुणस्थान तक संज्वलन कषाय का उदय है, इसलिए सराग-अवस्था होती है; परन्तु सातवें आदि गुणस्थानों में वह कषाय उत्तरोत्तर मन्द ही होता. जाता है, इसलिए वह प्रमाद में नहीं गिना जाता। हाँ, सर्वविरति होने पर भी कभी-कभी कर्त्तव्य-कार्य उपस्थित होने पर आलस्य, उपेक्षा, चारित्र-पालन में खिन्नता, क्लिष्ट परिणाम तथा पौद्गलिक सुखों के पूर्व संस्कारों के तीव्र आक्रमण आदि के कारण जो आत्मजागृति के प्रति अनुत्साह या अनादरबुद्धि उत्पन्न होती है, वह प्रमाद है। वैसे छठे गुणस्थान से आगे प्रत्याख्यानावरण कषाय रहता ही नहीं, मात्र संज्वलन कषाय रहता है। इस कारण गुणस्थान क्रमारोह के अनुसार इस गुणस्थान में आर्तध्यान प्रमुख रूप से रहता है। ___ 'गोम्मटसार' में प्रमाद के १५ भेद बताए गए हैं-चार विकथाएँ (स्त्रीकथा, भक्त-कथा, राजकथा और देशकथा), चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) पंचेन्द्रिय-विषयों में राग-द्वेष या आसक्ति, निद्रा और प्रणय नेह।२ . .
. छठे गुणस्थान से आगे उत्तरोत्तर विशुद्धि इस छठे गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव के अलावा औदयिक आदि भाव नहीं होते। छठे गुणस्थान से आगे की सभी भूमिकाएँ मुनिजीवन की होती हैं। यहाँ देशविरति आत्मा की अपेक्षा अनन्तगुनी विशुद्धि होने से विशुद्धि का प्रकर्ष और अविशुद्धि का अपकर्ष है, जबकि अप्रमत्तसंयत गुणस्थान की अपेक्षा से तो अनन्तगुनी कम विशुद्धि होती है, इसलिए विशुद्धि का अपकर्ष और अविशुद्धि का प्रकर्ष होता है। इस गुणस्थान में असंख्य संयम स्थानक होते हैं, जिसके स्थूल दृष्टि से जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट यों तीन भेद होते हैं। ..
छठे गुणस्थान की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति एवं स्वामित्व इस गुणस्थान की स्थिति कर्मस्तव, योगशास्त्र, गुणस्थानक्रमारोह, सर्वार्थसिद्धि आदि ग्रन्थों के अनुसार जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् प्रमत्तसंयती एक बार अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में पहुँचता है। वहाँ भी अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त रहकर पुनः प्रमत्तसंयत गुणस्थान में आ जाता है। यह चढ़ाव
१. (क) जैनदर्शन (न्या. न्या. न्यायविजय जी), पृ. ११२
(ख) आत्मतत्वविचार पृ. ४७४
(ग) गुणस्थान-क्रमारोह, गा. २८ २. विकहा तहा कसाया, इंदिय-निद्दा तहेव पणयो य।
चदु चदु पणमेगेगं, होति पमादा पण्णरस॥ -गोम्मटसार (जीवकाण्ड) गा. ३४
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