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२९८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ
मिथ्यात्व-गुणस्थान के अधिकारी कौन-कौन ? छोटे-से छोटे कीड़े से लेकर बड़े से बड़े पण्डित, तपस्वी और राजा-महाराजा तक भी मिथ्यात्व-गुणस्थान की श्रेणी में हो सकते हैं। इस गुणस्थान में परिगणित
आत्मा गाढ रागद्वेष-परिणाम वाली होती है, भौतिक उन्नति में ही लिप्त रहती है। तात्पर्य यह है कि उसकी सब प्रवृत्तियों का लक्ष्य सांसारिक सुखों का उपभोग और उसी के लिए आवश्यक साधनों का संग्रह करना होता है। ऐसी आत्माओं की आध्यात्मिक स्थिति मोहकर्म की उक्त दोनों शक्तियों के प्रबल होने से बिलकुल गिरी हुई होती है। आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा अविकसित, अध:पतित आत्मा की अवस्था ही प्रथम गुणस्थान में मानी जाती है। इस प्रथम गुणस्थान की भूमिका वाला आत्मा आधिभौतिक उत्कर्ष चाहे जितना क्यों न कर ले, पर उसकी प्रवृत्ति-वृत्ति तात्त्विक लक्ष्य से सर्वथा शून्य होती है। जैसे-दिग्भ्रान्त मनुष्य पश्चिम को पूर्व दिशा मान कर गति करता जाता है, परन्तु अपने इष्ट स्थान को प्राप्त नहीं करता, वैसे ही प्रथम गुणस्थान की भूमिका वाला मानव आत्मा से पर रूप (परभाव या विभाव) को स्वरूप (स्वभाव-स्वगुण) समझ कर उसी को पाने के लिए प्रतिक्षण लालायित रहता है और विपरीत दृष्टि या मिथ्यादर्शन के कारण रागद्वेष के प्रबल थपेड़ों से आहृत होकर आत्मिक सुख से वंचित रहता है। इसी भूमिका को जैन-आगम और दर्शन में मिथ्यादर्शन या बहिरात्म भाव कहा गया है। ऐसी आत्माएँ आध्यात्मिक विकास से पराङ्मुख होती है। मोक्ष की बात उन्हें नहीं सुहाती और न मोक्ष के साधनों को अपनाने की इच्छा होती है, बल्कि उनके प्रति उपेक्षा भाव होता है।१।
मिथ्यात्व गुणस्थान को गुणस्थान क्यों कहा गया ? प्रश्न होता है, मिथ्यात्व गुणस्थान के उक्त स्वरूपविशेष को गुणस्थान कैसे कह सकते हैं; क्योंकि प्रथम गुणस्थानवी जीवों में सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप गुण तो हैं ही नहीं, साथ ही तत्वादि के प्रति श्रद्धा और दृष्टि भी विपरीत है, फिर इसे गुणस्थान कैसे कहा जा सकता है ?
इसका समाधान यह है कि यद्यपि मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीव में श्रद्धा और दृष्टि का विपरीत भाव अवश्य होता है, सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप सम्यगुण भी
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. २ प्रस्तावना (पं० सुखलालजी) से भावांश ग्रहण, पृ०५
(ख) चौद गुणस्थान (पं० चन्द्रशेखरविजय जी) से भावांश ग्रहण पृ० १२१ (ग) जैनदर्शन (न्या० न्या० मुनि श्री न्यायविजयजी) से पृ० १०६ (घ) कर्मग्रन्थ भा. ४ प्रस्तावना (पं० सुखलाल जी) पृ० १२ (ङ) आत्मतत्त्व विचार से भावांश ग्रहण, पृ० ४४७-४४८
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