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________________ २९२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अनाहारक मार्गणा में कार्मण काययोग के समान सामान्य ये ११२ प्रकृतियों का, और पहले गुणस्थान में १०७, दूसरे में ९४, चौथे में ७५ और तेरहवें में १ प्रकृति का बन्ध स्वामित्व समझना चाहिए । बन्ध योग्य १२० प्रकृतियों में से आहारकद्विक, देवायु, नरकत्रिक, मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु इन ८ प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से अनाहारक में ११२ प्रकृतियाँ बंधती हैं। पहले गुणस्थान में इन ११२ में से जिननाम, वैक्रियद्विक तथा देवद्विक, इन ५ प्रकृतियों को कम करने पर १०७ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व है। दूसरे सास्वादन गुणस्थान में १०७ प्रकृतियों में से सूक्ष्मत्रिक, विकलेन्द्रियत्रिक, एकेन्द्रिय जाति, स्थावरनाम, आतपनाम, नपुंसकवेद, मिथ्यात्वमोहनीय, हुंडक संस्थान और सेवार्त संहनन, इन १३ प्रकृतियों को कम करने पर ९४ प्रकृतियों का तथा चौथे गुणस्थान में इन ९४ में से अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि २४ प्रकृतियों को कम करने तथा जिनपंचक की ५ प्रकृतियों को मिलाने से ७५ प्रकृतियाँ बँधती हैं। सयोग केवल गुणस्थान में सिर्फ एक सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। (१२-१३ ) भव्यत्व मार्गणा तथा संज्ञित्वमार्गणा में बन्ध-स्वामित्व प्ररूपणा भव्य और संज्ञी इन दो मार्गणाओं में १४ ही गुणस्थान होते हैं। अतः इनका सामान्य से और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध-स्वामित्व बन्धाधिकार में बताये अनुसार जानना चाहिए। अभव्य प्रथम गुणस्थान में ही अवस्थित होते हैं। अतः इनका बन्धस्वामित्व सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा प्रथम गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का है। असंज्ञी जीवों में पहला और दूसरा दो ही गुणस्थान होते हैं। तथा इनमें तीर्थंकर नामकर्म एवं आहारकद्विक, इन ३ प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं है। अतः सामान्य से और प्रथम गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का एवं द्वितीय गुणस्थान में बन्धाधिकारोक्तवत् १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। (१४) लेश्याओं में बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा योगान्तर्गत कृष्णादि द्रव्यों के सम्बन्ध (सम्पर्क) से आत्मा के जो शुभाशुभ परिणाम होते हैं, उन्हें लेश्या कहते हैं । कषाय उनके सहकारी हैं। कषाय की जैसीजैसी तीव्रता होती है, वैसी - वैसी लेश्याएँ अशुभ से अशुभतर होती जाती हैं, तथैव कषाय की जैसी - जैसी मन्दता होती है, वैसी - वैसी लेश्याएँ विशुद्ध से विशुद्धतर होती जाती हैं। जैसे अनन्तानुबन्धी कषाय के तीव्रतम उदय होने पर कृष्ण लेश्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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