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________________ २८८ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ अज्ञानत्रिक के सामान्य से तथा प्रथम गुणस्थान में ११७ का बन्ध होता है। सामान्य बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक, ये तीन प्रकृतियाँ अज्ञानत्रिक मिथ्यात्व का सद्भाव होने से तथा मिथ्यात्व अज्ञान का कारण होने से कम कर देने पर ११७ प्रकृतियाँ ही बन्धयोग्य होती हैं। दूसरे गुणस्थान में १०१, तीसरे में ७४ प्रकृतियों का बन्ध-स्वामित्व समझना चाहिए । पाँच ज्ञान और चार दर्शनों में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिद्विक ( अवधिज्ञान, अवधिदर्शन), इन चार मार्गणाओं में पहले के तीन गुणस्थान तथा अन्तिम दो गुणस्थान नहीं होते हैं। अर्थात्-चौथे अविरत सम्यग्दृष्टि से लेकर बारहवें क्षीणकषाय गुणस्थान तक नौ गुणस्थान होते हैं। आदि के तीन गुणस्थान न होने का कारण है, इन तीनों में शुद्ध सम्यक्त्व का न होना, क्योंकि ये चारों सम्यक्त्व के होने पर ही सम्यग्ज्ञान माने जाते. हैं। तथा अन्तिम दो गुणस्थानों के न होने का कारण है- उनमें क्षायिक ज्ञान का होना, क्षायोपशमिक का न होना। अतः इन चारों मार्गणाओं में आहारकद्विकका बन्ध सम्भव होने से सामान्य से ७९ प्रकृतियों तथा गुणस्थानों की अपेक्षा चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए। अर्थात्- चौथे गुणस्थान की बन्धयोग्य ७७ प्रकृतियों में आहारकद्विक की प्रकृतियों को और जोड़ने से सामान्य की अपेक्षा ७९ प्रकृतियों का, पाँचवें में ६७, छठे में ६३, सातवें में ५९/५८, आठवें में ५८/५६ / २६, नौवें में २२/२१/२०/१९/ १८, दसवें में १७, ग्यारहवें में १ तथा बारहवें में १ प्रकृति का बन्ध समझना चाहिए । * मनःपर्यायज्ञान में छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान - पर्यन्त ७ गुणस्थान होते हैं। और इसमें आहारकद्विक का बन्ध सम्भव होने से सामान्य से ६५ प्रकृतियों का तथा अन्य गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्ध समझना चाहिए । केवलज्ञान और केवलदर्शन में अन्तिम दो गुणस्थान होते हैं । उनमें से चौदहवें गुणस्थान में तो बन्ध के कारणों का अभाव होने से बन्ध नहीं होता । तथा तेरहवें गुणस्थान में सामान्य और विशेष दोनों रूप से एकमात्र सातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। चक्षुर्दर्शन और अचक्षुर्दर्शन, इन दोनों में आदि के १२ गुणस्थान होते हैं और इनका बन्ध-स्वामित्व सामान्य से एवं गुणस्थानों की अपेक्षा से गुणस्थानों के समान समझना चाहिए। १. मणनाणि सगजयाई समइय छेय चउ दुन्नि परिहारे । केवलगि दो चरमाऽजयाइ नव मइसुयोहि - दुगे ॥ १८ ॥ Jain Education International - कर्मग्रन्थ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ७१ से ७४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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