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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षयां बन्धस्वामित्व - कथन २८३
है और सासादन गुणस्थान में वर्तमान जीव शरीर - पर्याप्ति पूर्ण नहीं करता है। इस दृष्टि से इस द्वितीय गुणस्थान में मनुष्यायु और तिर्यञ्चायु का बन्ध नहीं होता । तथा इसमें मिथ्यात्व का उदय न होने से मिथ्यात्व के उदय से बंधने वाली सूक्ष्मत्रिक से लेकर सेवार्त संहनन - पर्यन्त १३ प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता । अतः कुल २+१३-१५ प्रकृतियों को प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में बन्धयोग्य १०९ प्रकृतियों में से कम करने पर ९४ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
औदारिकमिश्र काययोग वाले जीव के पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ ये चार गुणस्थान होते हैं। चौथे गुणस्थान में इसके ७५ प्रकृतियों का बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थान में उक्त ९४ प्रकृतियों में से अनन्तानुबन्धी चतुष्क आदि ( से तिर्यंचद्विक पर्यन्त) २४ प्रकृतियाँ कम करने से कुल ७० प्रकृतियाँ शेष रहती हैं, साथ ही तीर्थंकर नाम - पंचक (तीर्थंकर नामकर्म, देवद्विक और वैक्रियद्विक) के मिलाने से ७०+५=७५ प्रकृतियों का बन्ध चौथे गुणस्थान के दौरान होता है। और तेरहवें गुणस्थान में तो सिर्फ एक सातावेदनीय का बन्ध होता है । १
कार्मण काययोग में बन्धस्वामित्व प्ररूपणा
कार्मण काययोग में तिर्यञ्चायु और मनुष्यायु के सिवाय अन्य सब प्रकृतियों का बन्ध औदारिकमिश्र काययोग के समान ही है। कार्मण काययोग भवान्तर के लिए जाते हुए अन्तराल (विग्रह ) गति के समय तथा जन्म लेने के प्रथम समय में होता है। कार्मण काययोग वाले जीवों के पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवाँ, ये चार गुणस्थान होते हैं। इनमें से तेरहवाँ गुणस्थान केवली - समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में सयोगिकेवली भगवान् को होता है। और शेष तीन गुणस्थान अन्य जीवों के अन्तराल गति के तथा जन्मग्रहण के प्रथम समय में होते हैं । कार्मण काययोग में सामान्य से ११२ प्रकृतियों का बन्ध होता है । औदारिकमिश्र काययोग में
१. (क) ओराले वा मिस्से ण सुर- णिरयाउहार - णिरयदुगं ।
मिच्छदुगे देवचओ तित्थं ण हि अविरदे अत्थि ॥ ११६ ॥ - गोम्मटसार, कर्मकाण्ड (ख) जोएण कम्मएणं आहारेइ अनंतरं जीवो।
ते परं मीसेणं जाव सरीरनिफ्फत्ती ॥
- भद्रबाहुस्वामी (ग) औदारिक काययोगस्तिर्यङ् मनुष्योः शरीर पर्याप्तेरूर्ध्वम् । - आचारांग टीका १/२ (घ) कर्मग्रन्थ भा. ३ गा. १४ विवेचन, (मरुधर केसरीजी) से सारांश ग्रहण, पृ. ४९ से ५८ तक
(ङ) आहारछग - विणोहे चउदस-सउ, मिच्छि जिण-पणग-हीणं ।
सासणि चडनवइ विणा नरतिरिआऊ सुहुमतेर॥ १४॥
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- तृतीय कर्मग्रन्थ
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