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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व-कथन २७५ उतनी-उतनी प्रकृतियों का बन्ध समझ लेना चाहिए। जैसे कि पाँचवें गुणस्थान में ६७, छठे गुणस्थान में ६३, सातवें में ५९ या ५८ । __ पाँचवे गुणस्थान में पर्याप्त मनुष्य के ६७ और पर्याप्त तिर्यश्च के ६६ प्रकृतियों का बन्ध बतलाया गया है, जबकि दूसरे कर्मग्रन्थ में दोनों के लिए पंचम गुणस्थान में ६७ प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है। इस भिन्नता का कारण यह है कि पर्याप्त तिर्यंचों के चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व होने पर भी तीर्थंकर नाम-कर्म के बन्धयोग्य अध्यवसायों के न होने से ७० प्रकृतियों का बन्ध कहा गया है, उनमें से अप्रत्याख्यानावरणीय कषाय-चतुष्क को कम करने से पांचवें गुणस्थान में ६६ प्रकृतियों का बन्ध कहा है, जबकि पर्याप्त मनुष्य चौथे गुणस्थान में तीर्थंकरनामकर्म का भी बन्ध कर सकते हैं। अतः सामान्यतया बन्धयोग्य ७१ प्रकृतियों में से अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क को कम करने से ६७ प्रकृतियों का बन्ध पर्याप्तमनुष्यों के कहा गया है।
अपर्याप्त तिर्यश्च और अपर्याप्त मनुष्य, इन दोनों के अपर्याप्त विशेषण का अर्थ यहाँ लब्धि-अपर्याप्त समझना चाहिए, करण-अपर्याप्त नहीं। इस अर्थ को करने का कारण यह है कि अपर्याप्त मनुष्य तीर्थंकर नामकर्म का बंध भी कर सकता है।
इन लब्धि-अपर्याप्त मनुष्यों और तिर्यञ्चों के सामान्य से बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से तीर्थंकर नामकर्म, देवद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, देवायु और नरकत्रिक, इन ग्यारह प्रकृतियों को कम करने से १०९ प्रकृतियों का बन्ध होता है। तथा अपर्याप्त अवस्था में केवल मिथ्यात्वगुणस्थान होने से इस गुणस्थान में भी १०९ प्रकृतियों का बन्ध कर सकते हैं। क्योंकि मिथ्यादृष्टि होने से तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक का बन्ध नहीं करते तथा मर कर देवगति में नहीं जाते इसलिए इससे सम्बन्धित देवद्विक, वैक्रियद्विक और देवायु का भी बन्ध नहीं करते, एवं अपर्याप्त जीव नरकगति में उत्पन्न नहीं होते, इस कारण नरकत्रिक का भी बन्ध नहीं करते। यों उक्त ११ प्रकृतियों को कम करने से सामान्यापेक्षा तथा मिथ्यात्वगुणस्थान में अपर्याप्त तियचों और मनुष्यों के १०९ प्रकृतियों का बन्ध स्वामित्व माना गया है।
देवगति में बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा अब देवगति में सामान्य और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा करते हैं। देवों के भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक, ये चार निकाय
१. तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ९ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. ३२ से ३५ . २. ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम-विशेष को 'लब्धि' कहते हैं।
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