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मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व - कथन २७१ तिर्यञ्चगति में बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा
जिनके तिर्यंच गति नामकर्म का उदय हो, उन्हें तिर्यञ्च कहते हैं । एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के सभी जीव तिर्यञ्च कहलाते हैं। पंचेन्द्रिय के चार भेद हैं- नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव । अतः पञ्चेन्द्रियों में तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय जीव ही तिर्यञ्च कहलाते हैं। तिर्यञ्चों के दो भेद हैं- पर्याप्ततिर्यञ्च और अपर्याप्त तिर्यञ्च ।
पर्याप्ततिर्यञ्चों के बन्धस्वामित्व की प्ररूपणा
सर्वप्रथम पर्याप्ततिर्यंचों के बन्ध-स्वामित्व की प्ररूपणा करते हैं । समस्त जीवों की अपेक्षा से सामान्यतया बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से तीर्थंकर नामकर्म और आहारकद्विक, इन तीन प्रकृतियों का बन्ध तिर्यंचगति में नहीं होता है; क्योंकि तिर्यञ्चों के सम्यक्त्वी होने पर भी जन्म - स्वभाव से ही तीर्थंकर नामकर्म के बन्धयोग्य अध्यवसायों का अभाव होता है और आहारकद्विक का बन्ध चारित्रधारक मुनियों के ही होता है । अत: इन तीन प्रकृतियों का बन्ध तिर्यञ्चगति वालों के न होने से ११७ प्रकृतियों का बन्ध ही होता है।
तिर्यञ्चगति में पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर पाँचवें देश-विरतगुणस्थान तंक पाँच गुणस्थान होते हैं। ये पांचों गुणस्थान पर्याप्ततिर्यञ्च को होते हैं, अपर्याप्त - तिर्यञ्च को सिर्फ पहला मिथ्यात्व - गुणस्थान ही होता है ।
पर्याप्ततिर्यञ्चों के ११७ प्रकृतियों की बन्धस्वामित्व - प्ररूपणा
सामान्यतया पर्याप्ततिर्यञ्चों के जैसे ११७ प्रकृतियों का बन्ध-स्वामित्व बतलाया गया है, उसी प्रकार प्रथम मिथ्यात्व - गुणस्थान में भी उनके ११७ प्रकृतियों का बन्ध समझना चाहिए; क्योंकि मिथ्यात्व - गुणस्नान में न तो सम्यक्त्व है, और न सर्वविरतिचारित्र, इसलिए तीर्थंकरनामकर्म और आहारकद्विक तीनों प्रकृतियों का बन्ध उनके नहीं होता है।
सास्वादन गुणस्थान में पर्याप्ततिर्यञ्चों की बन्धस्वामित्व - प्ररूपणा
इसी तरह पर्याप्ततिर्यञ्चों के सास्वादन गुणस्थान में १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है । तिर्यञ्चों के सामान्य से तथा प्रथम गुणस्थान में जो ११७ प्रकृतियों का बन्ध बताया गया था, उनमें से मिथ्यात्व के उदय से बँधने वाली १६ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होने से शेष १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है । मिथ्यात्वोदयवशात् बँधने वाली १६ प्रकृतियाँ ये हैं-नरकत्रिक (नरकगति, नरकानुपूर्वी, नरकायु), जातिचतुष्क
१. तृतीय कर्मग्रन्थ गा. ७ विवेचन (मरुधरकेसरीजी) पृ. २६
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