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________________ मार्गणाओं द्वारा गुणस्थानापेक्षया बन्धस्वामित्व - कथन २६९ चाहिए। पंकप्रभादि तीन नरकों में प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ गुणस्थान में क्रमश: १००, ९६, ७० और ७१ प्रकृतियों का पूर्ववत् बन्ध हो जाता है । १ सातवें नरक में पहले से चतुर्थगुणस्थानवर्ती नारंकों का बन्धस्वामित्व सातवें नरक में सामान्यतया तीर्थकर नामकर्म और मनुष्यायु का बन्ध नहीं होता है तथा मनुष्य-द्विक और उच्चगोत्र के बिना शेष प्रकृतियों का मिथ्यात्व - गुणस्थान में बन्ध होता है। तीर्थंकर नामकर्म के बन्धयोग्य तथाप्रकार के अध्यवसायों का सातवें नरक में अभाव होता है, तथा मनुष्यायु का बन्ध भी छठे नरक तक होता है। अतः सातवें नरक में इन दोनों प्रकृतियों को कम करने से १०१ -२ = ९९ प्रकृतियों का बन्ध सप्तम नरक में माना गया है। सप्तम नरक में ९९ प्रकृतियाँ जो बन्धयोग्य बताई हैं, उनमें से उसी नरक के प्रथम-गुणस्थानवर्ती नारक मनुष्यद्विक, तथा उच्चगोत्र इन तीन प्रकृतियों को तथाविध विशुद्धि के अभाव में नहीं बांधते । क्योंकि सप्तम नरकवर्ती नारक के लिए तीन प्रकृतियाँ उत्कृष्ट पुण्यशालिनी मानी गईं हैं, जो कि उत्कृष्ट विशुद्ध अध्यवसाय से ही बंधती हैं। उत्कृष्ट विशुद्ध अध्यवसाय तीसरे और चौथे गुणस्थान में होते हैं । इसलिए मनुष्यगतिद्विक और उच्चगोत्र, इन तीन प्रकृतियों के अबन्ध्य होने से ९९ प्रकृतियों में से इन तीन प्रकृतियों को कम करने से ९६ प्रकृतियों का बन्ध होता है। सप्तम-नरकवर्ती नारकों के दूसरे सास्वादन गुणस्थान में तिर्यचायु और नपुंसकचतुष्क (नपुंसकवेद, मिथ्यात्व, हुंडकसंस्थान, और सेवार्त संहनन इन ५ प्रकृतियों के अबन्ध्य होने से मिथ्यात्वगुणस्थान में जो ९६ प्रकृतियों का बन्ध बताया गया है, उनमें से इन ५ प्रकृतियों को कम करने से कुल ९१ प्रकृतियों का बन्ध होता है। चूंकि सास्वादन में योग्य अध्यवसाय न होने से तिर्यचायु का बन्ध नहीं होता, तथा नपुंसकचतुष्कं मिथ्यात्व के उदय में होता है, मगर सास्वादन गुणस्थान में मिथ्यात्व का उदय नहीं होता, अतः नपुंसकचतुष्क का बन्ध भी इसमें नहीं होता । अतएव ९६ में से ५ कम होने से ९१ प्रकृतियों का बन्ध सास्वादन गुणस्थानवर्ती सप्तमनरकीय नारकों के होता है। सातवें नरक में तीसरे मिश्रगुणस्थानी तथा चौथे अविरत - सम्यग्दृष्टि गुणस्थानी जीवों के ७० कर्मप्रकृतियों का बन्ध होता है । वह इस प्रकार - सप्तमनरकवासी सास्वादनगुणस्थानवर्ती नारक जीवों के बन्धयोग्य जो ९१ प्रकृतियाँ कही गईं थीं, उनमें से अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्क से लेकर तियंचद्विक तक २४ १. तृतीय कर्मग्रन्थ, गा. ५ विवेचन; पृ. १९ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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