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________________ २६० कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ उन अवस्थाओं को प्रस्तुत करना मार्गणा कहलाती है। स्पष्ट शब्दों में कहें तो-"जिस प्रकार से, जिन अवस्थाओं या पर्यायों आदि में अवस्थित जीवों को जैसे-जैसे देखा गया है, उन-उन जीवों की उसी-उसी रूप में विचारणा या गवेषणा करना मार्गणा है।"१ गुणस्थान : जीवों के आध्यात्मिक विकास क्रम के सूचक इसके साथ ही कर्मविज्ञान पुरस्कर्ता ज्ञानिजनों ने जीवों के आध्यात्मिक गुणों के विकास क्रम की भी मार्गणा की है और जीवों के आध्यात्मिक गुणों के विकास क्रम को ध्यान में रखते हुए उक्त विकास क्रम को भी १४ भागों में विभक्त किया है जिन्हें वे 'गुणस्थान' कहते हैं। __गुणस्थान की विशेषता यद्यपि इस आध्यात्मिक विकास-मार्ग की क्रमिक असंख्यात अवस्थाओं से जीव गुजरता है। परन्तु इन क्रमिक असंख्यात अवस्थाओं को ज्ञानी महापुरुषों ने १४ गुणस्थानों में वर्गीकृत किया है। इन चौदह वर्गों या विभागों को आगमों और ग्रन्थों में गुणस्थान कहा गया है। जीव की मोह और अज्ञान की प्रगाढ़तम अवस्था कर्मों से गाढ़रूप से बद्ध, निकृष्ट एवं निम्नतम अवस्था है; जबकि सर्वथा मोहरहित पूर्णज्ञानावस्था की प्राप्ति जीव की उच्चतम सर्वकर्ममुक्त अवस्था है, जिसे मोक्षावस्था कहते हैं। निम्नतम गाढ़ मोहावस्था से शनैः-शनैः मोह के आवरणों को हटाता हुआ जीव क्रमशः उच्च-उच्चतर भूमिका पर आगे बढ़ता जाता है। आत्मा के शुद्ध स्वाभाविक गुणों-ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य का या ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि गुणों का विकास करता हुआ जीव बीच की अनेक अवस्थाओं को क्रमशः पार करता है। यहाँ मार्गणाओं के माध्यम से उनमें पाये जाने वाले गुणस्थानों का विचार किया गया है। मार्गणाओं और गुणस्थानों के कार्य में अन्तर मार्गणा द्वारा किया जाने वाला जीवों की अवस्थाओं का विचार कर्म की अवस्थाओं के तरतमभाग का विचार नहीं है; किन्तु उसके द्वारा किया जाता है शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक विभिन्नताओं से ग्रस्त जीवों का विचार जबकि गुणस्थान कर्मपटलों-कर्मावरणों के तरतम भावों और त्रिविध योगों की प्रवृत्ति-निवृत्ति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करते हैं। १. (क) तृतीय कर्मग्रन्थ गाथा १, विवेचन (मरुधरकेसरी) से भावग्रहण.पृ० २ (ख) जाहिं जासु व जीवा मग्गिजंते, जहा तहा दिट्ठा। -गो. कर्मकाण्ड Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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