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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण - २ २४९ मति आदि चार ज्ञान, ( १६ - १८) तीन अज्ञान, ( १९ - २१) तीन चारित्र (सामा० छेदो० परिहार०), (२२) देशविरति, (२३) अविरति, ( २४-२६) तीन दर्शन, (२७) भव्यत्व, (२८) अभव्यत्व, ( २९ - ३१ ) तीन सम्यक्त्व ( क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक), (३२) सासादन, (३३) सम्यगमिथ्यात्व (३४) मिथ्यात्व, (३५३८) चार कषाय, (३९) संज्ञित्व, (४०) आहारकत्व और (४१) अनाहारकत्व । १ चौदह मार्गणाओं में अल्प-ब - बहुत्व - प्ररूपणा गतिमार्गणा का अल्प - बहुत्व' - ' सबसे कम मनुष्य हैं, नारक उनसे असंख्यातगुणे हैं, नारकों से देवता असंख्यातगुणे हैं और देवों से तिर्यञ्च अनन्तगुणे हैं । सबसे कम मनुष्य इसलिए हैं कि मनुष्य जघन्य उनतीस अंक - प्रमाण और उत्कृष्ट असंख्यात होते हैं। मनुष्यों के गर्भज और सम्मूर्च्छिम, ये दो भेद हैं। इनमें से सम्मूर्च्छिम मनुष्य किसी समय बिलकुल ही नहीं रहते, केवल गर्भज रहते हैं। कारण यह है कि सम्मूर्च्छिम मनुष्यों की आयु अन्तर्मुहूर्त प्रमाण होती है। जिस समय, सम्मूर्च्छिम मनुष्यों की उत्पत्ति में एक अन्तर्मुहूर्त से अधिक समय का अन्तर पंड़ जाता है, उस समय पहले के उत्पन्न हुए सभी सम्मूर्च्छिम मनुष्यों के मर चुकने पर गर्भज मनुष्य ही रह जाते हैं, जो कम से कम २९ अंकों के बराबर होते हैं । इसलिए मनुष्यों की कम से कम ( जघन्य) यही संख्या हुई । उत्कृष्ट संख्या असंख्यात इसलिए है कि जब सम्मूर्च्छिम मनुष्य पैदा होते हैं, तब वे एक साथ अधिक से अधिक असंख्यात तक होते हैं, उसी समय मनुष्यों की उत्कृष्ट संख्या पायी जाती है। असंख्यात संख्या के भी असंख्यात भेद हैं, इनमें से जो असंख्यात संख्या मनुष्यों के लिए इष्ट है, उसका परिचय शास्त्र में काल और क्षेत्र, दो प्रकार से दिया गया है । ३ १. (क) छसु लेसासु सगणं, एगिंदि असन्नि भूदग-वणेसु । पढमा चउरो तिन्नि उ, नारय - विगलग्गि- पवणेसु ॥ ३६ ॥ अहक्खाय- सुहुम-केवलदुगि, सुक्का छावि सेसठाणेसु ॥ ३७ ॥ - चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ३६-३७ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० ११४, ११५ २. रज्जु, घनीकृत लोक, सूचि श्रेणि और प्रतर आदि का स्वरूप पांचवें कर्मग्रन्थ की ९७ वीं गाथा से जानें। ३. कर्मग्रन्थ भा. ४ में गा. ३७ से ४४ तक चौदह मार्गणाओं में अल्प बहुत्व का जो विचार है, उसके विस्तृत विवेचन के लिए देखें - (१) प्रज्ञापना सूत्र पद ३, अल्प बहुत्व पद। (२) अनुयोगद्वार पृ० २०९, २०५, १०९, २००, २०८, (३) पंचसंग्रह द्वार २ गा. १४, १५, २१ (४) गोम्मटसार जीवकाण्ड गा. १५७, १५२, १६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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