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________________ . . १ का विशेष दशाएँ . २४६ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ सम्यक्त्व और अवधिदर्शन इन ११ मार्गणाओं में चार ज्ञान, तीन दर्शन, ये कुल ७ उपयोग होते हैं। विग्रहगति, केवलि-समुद्घात और मोक्ष में अमाहारकत्व होता है। विग्रहगति में ८ उपयोग होते हैं। जैसे-भावी तीर्थंकर आदि सम्यक्त्वी को तीन ज्ञान, मिथ्यात्वी को तीन अज्ञान, सम्यक्त्वी-मिथ्यात्वी-उभय को अचक्षु और अवधि ये दो दर्शन, तथा केवलि-समुद्घात और मोक्ष में केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो उपयोग होते हैं। इस तरह सब मिलाकर अनाहारक मार्गणा में दस उपयोग हुए। मनःपर्यायज्ञान और चक्षुर्दर्शन ये दो उपयोग पर्याप्त-अवस्थाभावी होने के कारण अनाहारक मार्गणा में, नहीं होते। केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान, यथाख्यात के सिवाय चार संयम (चारित्र), औपशमिक और क्षायोपशमिक दो सम्यक्त्व और अवधि दर्शन; ये ११ मार्गणाएँ चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक में ही पायी जाती हैं। इस कारण इनमें ३ अज्ञान और केवलद्विक इन ५ उपयोगों के सिवाय शेष ७ उपयोग माने गए हैं। ___ अवधि दर्शन में तीन अज्ञान कार्मग्रन्थिक मतानुसार नहीं माने हैं।२ . . तीन योगों में उपयोगों की प्ररूपणा : विशेषापेक्षा से अन्य आचार्य मनोयोग में जीवस्थान दो, गुणस्थान तेरह, योग तेरह, उपयोग बारह तथा वचनयोग में जीवस्थान ८, गुणस्थान दो, योग चार, उपयोग चार और काययोग में जीवस्थान चार, गुणस्थान दो, योग पांच और उपयोग तीन मानते हैं। - प्रस्तुत गाथा (३५) में मन-वचन-काययोग में विशेष विवक्षा करके जीवस्थान आदि का विचार किया गया है। अर्थात्-यहाँ प्रत्येक योग को अन्य योग से रहित लेकर उसमें जीवस्थान आदि की यथासम्भव प्ररूपणा की गई है। यथासम्भव का मतलब यह है कि मनोयोग तो वचन-काययोग-रहित मिलता ही नहीं, इस कारण वह वचन-काय-उभययोग सहचरित ही लिया जाता है। परन्तु वचन काययोग के विषय में यह बात नहीं। वचनयोग कहीं काययोग रहित न मिलने पर भी द्वीन्द्रियादि में मनोयोग-रहित मिल जाता है। इसलिए वह मनोयोगरहित लिया जाता है। काययोग एकेन्द्रिय में मन-वचन-योग रहित मिल जाता है। इस कारण वह वैसा ही लिया जाता है। १. 'जयाइ मइ-सुओहिदुगे' इस २१ वीं गाथा के अनुसार समझें। २. (क) मण-नाण-चक्खुवजा, अणहारि तिन्नि दंसण चउ नाणा। चउनाण-संजमोवसम-वेयगे ओहिदंसे य॥३४॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. ३३, ३४ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० १०९, ११० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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