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________________ मार्गणास्थान द्वारा संसारी जीवों का सर्वेक्षण-२ २४३ व्रतधारी श्रावक में चतुर्दश पूर्वधर और अपर्याप्त नहीं होता, इसलिए उसमें दो आहारक योग और अपर्याप्त-अवस्थाभावी कार्मण और औदारिकमिश्र, इन चार के सिवाय शेष ग्यारह योग माने जाते हैं। ग्यारह में वैक्रिय और वैक्रियमिश्र, ये दो योग भी गिनाये गए हैं, क्योंकि अम्बड़ आदि श्रावक द्वारा वैक्रियलब्धि से वैक्रिय शरीर बनाये जाने की बात शास्त्र में प्रसिद्ध है। यथाख्यात चारित्र वाला अप्रमत्त ही होता है। इसलिए उसमें दो वैक्रिय और दो आहारक ये चार प्रमाद-सहचारी योग नहीं होते, शेष ग्यारह होते हैं। ग्यारह योगों में कार्मण और औदारिकमिश्र ये दो योग केवलि समुद्घांत की अपेक्षा से गिने गए .. मार्गणास्थानों में उपयोगों का सर्वेक्षण किसी वस्तु का लक्षण उसका असाधारण धर्म है, क्योंकि लक्षण का उद्देश्य लक्ष्य को अन्य वस्तुओं से भिन्न बतलाना होता है; जो असाधारण धर्म में ही घटित हो सकता है। उपयोग जीव के असाधारण (विशिष्ट) धर्म हैं और अजीव से उसकी भिन्नता प्रदर्शित करते हैं; इसी कारण वे जीव के लक्षण कहे जाते हैं। - उपयोग के बारह प्रकार हैं-पांच ज्ञान, तीन अज्ञान और चार दर्शन; ये जीव के लक्षण हैं। . देवगति, तिर्यंचगति, नरकगति और अविरति में इन बारह में से मनःपर्याय ज्ञान और केवलद्विक (केवलज्ञान-केवलदर्शन) इन तीन सर्वविरति सापेक्ष उपयोगों को छोड़कर शेष नौ उपयोग पाये जाते हैं। अविरति वालों में से शुद्ध सम्यक्त्वी के ३ ज्ञान, ३ दर्शन-ये ६ उपयोग तथा शेष सब में ३ अज्ञान, २ दर्शन-ये पांच उपयोग जानने चाहिए। त्रसकाय, तीन योग, तीन वेद, शुक्ललेश्या, आहारक, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय जाति, संज्ञी और भव्य, इन तेरह मार्गणाओं में सभी (१२) उपयोग होते हैं। चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शनं, शुक्लध्यान के सिवाय, पांच लेश्याएँ और चार कषाय, इन ग्यारह मार्गणाओं में केवलद्विक को छोड़कर शेष १० उपयोग पाये जाते हैं। त्रसकाय आदि १३ मार्गणाओं में योग, शुक्ललेश्या और आहारकत्व, ये तीन मार्गणाएँ तेरहवें गुणस्थान-पर्यन्त और शेष दस चौदहवें गुणस्थान-पर्यन्त पाई जाती १. (क) मणवइ-उरला परिहारि सहमि नव तेउ मीसि सविउव्वा। देसे सविउव्विदुगा, सकम्मुरल मीस अहखाए॥२९॥ -चतुर्थ कर्मग्रन्थ (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ, गा. २९ विवेचन (पं० सुखलालजी), पृ० १०२ से १०४ (ग) देखें, औपपातिक सूत्र, पृ० ९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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