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२३२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ वाला जीव ही उनमें जन्म ग्रहण करता है; इस कारण उनमें प्रथम गुणस्थान ही पाया जाता है। .
अभव्यों में सिर्फ प्रथम गुणस्थान, इसलिए पाया जाता है कि वे स्वभाव से ही सम्यक्त्व लाभ नहीं कर सकते और सम्यक्त्व प्राप्त किये बिना दूसरे आदि गुणस्थान प्राप्त होने असम्भव हैं।
तीन वेद, तीन कषाय (संज्वलन के क्रोध, मान और माया) में आदि के नौ गुणस्थान पाये जाते हैं; ये नौ गुणस्थान उदय की अपेक्षा से समझने चाहिए; क्योंकि उनकी सत्ता तो ग्यारहवें गुणस्थान तक पाई जा सकती है। नौवें गुणस्थान के अन्तिम समय तक में तीन वेद और तीन संज्वलन कषाय या तो क्षीण हो जाते हैं, या उपशान्त। इस कारण नौवें से आगे के गुणस्थानों में उनका उदय नहीं रहता। लोभ (संज्वलन लोभ) में दस गुणस्थान होते हैं, ये दस गुणस्थान इसमें उदय की अपेक्षा से समझने चाहिए, जबकि उनकी सत्ता तो ग्यारहवें गुणस्थान तक पाई जा सकती है। . अविरति में आदि के चार गुणस्थान इसलिए कहे गए हैं, क्योंकि पाँचवे से लेकर आगे के सब गुणस्थान विरतिरूप हैं।
अज्ञानत्रिक में दो गुणस्थान या तीन ? : एक चिन्तन अज्ञानत्रिक में गुणस्थानों की संख्या के विषय में दो मत हैं, दोनों ही मत कार्मग्रन्थिक आचार्यों के हैं। पहला मत इनमें दो गुणस्थान मानता है, जबकि दूसरा मत तीन गुणस्थान। दो गुणस्थान मानने वाले आचार्य का मत है कि तीसरे गुणस्थान के समय भले ही शुद्ध सम्यक्त्व न होने से पूर्ण यथार्थ ज्ञान न हो, परन्तु उसमें मित्रदृष्टि होने से यथार्थज्ञान की थोड़ी बहुत मात्रा रहती है। मिश्रदृष्टि के समय मिथ्यात्व का उदय अधिक प्रमाण में हो तब तो अज्ञानांश अधिक और ज्ञानांश कम होता है, किन्तु जब मिथ्यात्व का उदय मन्द हो, तथा सम्यक्त्व-पुद्गलों का उदय तीव्र रहता हो तो ज्ञान की मात्रा अधिक और अज्ञान की मात्रा अल्प होती है। चाहे मिश्रदृष्टि की कैसी भी अवस्था हो, उसमें सम्यक् ज्ञान की मात्रा न्यूनाधिक रहती है, अतः उस समय के सम्यक् ज्ञान को अज्ञान न मानकर ज्ञान मानना ही उचित है। इस अपेक्षा से अज्ञानत्रिक में दो ही गुणस्थान मानने चाहिए, तीसरा नहीं।
१. (क) पण तिरि चउ सुर-नरए, नर-संनि-पणिंदिभव्व-तसि सव्व।
इग-विराल-भू-दग-वणे, दुदु, एगं गइतस, अभव्वं ॥ १९।। -कर्मग्रन्थ भा. ४ । (ख) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गाः १९ विवेचन (पं० सुखलाल जी), पृ० ८०-८१. .
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