SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ प्रकृतिबन्ध आदि बंध के मूलभूत अंग सर्वप्रथम बन्ध के चार अंगभूत रूपों का उल्लेख किया है-कर्मविज्ञान ने प्रकृतिबन्ध का कार्य कर्मों की विभिन्न प्रकृतियों (स्वभावों) के अनुसार विभिन्न रूपों में विभक्त कर देना है। वह मूल ८ तथा उत्तर १४८ भागों में विभक्त कर देता है। साथ ही प्रदेशबन्ध उनका अलग-अलग परिमाण (नापतौल) करके उन्हें बांधता है। अनुभागबन्ध तीव्र-मन्द-मध्यम कषायों, रागद्वेषादि रूप अध्यवसायों के अनुसार तीव्र-मन्दादि फल प्रदान करता है, और स्थितिबन्ध उन-उन कर्मों की कालमर्यादा निश्चित करता है। इन चारों प्रकार के बन्धों द्वारा प्रत्येक संसारस्थ जीव को बांध रखा है। ये बंध इतने ही नहीं हैं, प्रकृतिबन्ध के दायरे में मल प्रकृतियों और उत्तरप्रकृतियों का भी बन्ध होता है। ये बंध की मूलपूंजी और सेना हैं। प्रकृतिबन्ध आदि चारों में से जीवों के परिणामों के अनुसार अगणित भेद हो . जाते हैं। फिर प्रकृतिबन्ध आदि चारों के साथ ध्रुव और अध्रुव शब्द लगाया गया। बन्ध केवल बन्धरूप में ही अन्त तक नहीं पड़ा रहता। उसकी चार अवस्थाएँ बनती हैं-बन्ध, सत्ता, उदय और उदीरणा। इन चारों में से प्रथम तीन के साथ ध्रुव और, अध्रुव विशेषण जोड़ा गया। इनके इस प्रकार के वर्गीकरण करने के पीछे उद्देश्य यही रहा कि कर्मों की कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ सदैव बंधती रहती हैं, अमूक काल तक अवश्य टिकती हैं, कौन-सी प्रकृतियों का उदय स्थायी या अस्थायी है। यही कारण है कि कर्मविज्ञानवेत्ताओं ने इनका नाम इस प्रकार दिया है-ध्रुव-बन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, ध्रुवोदया अध्रुवोदया, ध्रुवसत्ताका अध्रुवसत्ताका। . घाती-अघाती कर्मबन्धों का विवेचन इसके पश्चात् घाती-अघाती प्रकृतियाँ भी बताई गईं हैं, वे इस उद्देश्य से कि संसारस्थ जीव, उसमें भी मनुष्य, यह पहचान सके कि कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ आत्मगुणों की सर्वांशतः या अंशतः घातक हैं, और कौन-कौन-सी प्रकृतियाँ अघाती हैं, यानी आत्मगुणों की घातक नहीं हैं, किन्तु शरीर से सम्बन्धित इकाइयों को बांधने वाली हैं? इसके साथ ही घाती कर्मप्रकृतियों के बन्ध के क्या-क्या कारण हैं? कौनकौन-सी प्रकृतियाँ सर्वघातिनी हैं? कौन-सी देशघातिनी हैं? आदि तथ्यों का सरल विवेचन किया गया है। १. (क) देखें, कर्मविज्ञान खण्ड ७ भा. ४ में बन्धों की सार्वभौम व्याख्या। ___ (ख) कर्मविज्ञान भाग ५ खण्ड ८ के 'परावर्तमाना अपरावर्तमाना प्रकृतियाँ' निबन्ध। २. प्रकृतिबन्धादि की प्ररूपणा के लिए देखें कर्मविज्ञान ७वां खण्ड के १३वें से २४वें तक के निबन्ध। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy