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२१४ · कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ है-नौ साधुओं का एक गण (समुदाय) मिलता है। जिसमें से चार साधु इस तप का आचरण करने वाले और चार साधु उनके परिचारक (सेवा करने वाले) तथा एक वाचनाचार्य बनते हैं। जो तपस्वी होते हैं, वे ग्रीष्मकाल में जघन्य एक, मध्यम दो
और उत्कृष्ट तीन उपवास करते हैं, तथा शीतकाल में जघन्य दो, मध्यम तीन और उत्कृष्ट चार उपवास करते हैं; एवं वर्षाकाल में जघन्य तीन, मध्यम चार और उत्कृष्ट पांच उपवास करते हैं। ये तपस्वी पारणे के दिन साभिग्रह आयम्बिल (आचाम्ल) तप करते हैं। यह क्रम ६ महीने तक चलता है। इसके पश्चात् दूसरे छह महीनों में पहले के तपस्वी परिचारक बनते हैं और परिचारक तपस्वी। तपस्वी बने हुए साधुओं के तपश्चरण का वही (पूर्ववत्) क्रम रहता है, और जो परिचारक पद अंगीकार करते हैं, वे सदा आयम्बिल तप ही करते हैं। दूसरे छह महीने के बाद तीसरे छह महीने के लिए भूतपूर्व वाचनाचार्य तपस्वी बन जाता है और शेष आठ साधुओं में से एक वाचनाचार्य और बाकी के सात साधु परिचारक बनते हैं। इस प्रकार तीसरे छह महीने पूर्ण होने के पश्चात् अठारह मास का यह परिहारविशुद्धि नामक तपश्चरण पूर्ण हो जाता है। इसके पश्चात् वे नौ ही साधु या तो 'जिनकल्प' अंगीकार करते हैं, या फिर पहले वे जिस गच्छ के रहे हों, उसी में पुनः प्रविष्ट हो जाते हैं; अथवा वे पुनः परिहारविशुद्धि तपश्चरण प्रारम्भ करते हैं। परिहारविशुद्धि तप के इसी अपेक्षा से दो भेद हो जाते हैं-एक निर्विशमानक, जो वर्तमान में परिहारविशुद्ध हैं, दूसरे निर्विष्टकायिक, जो अतीत में परिहारविशुद्ध हो चुके हैं।१ . .
१. (क) इस संयम के अधिकारी के लिए श्वेताम्बर परम्परा में जघन्य २९ वर्ष का
गृहस्थपर्याय (उम्र) तथा जघन्य २० वर्ष का साधु दीक्षा पर्याय (दीक्षाकाल) तथा दोनों पर्यायों का उत्कृष्ट प्रमाण कुछ कम करोड़ वर्ष पूर्व माना गया है। इस संयम के अधिकारी को साढ़े नौ पूर्व का ज्ञान होना आवश्यक है। इस संयम का ग्रहण तीर्थंकर या तीर्थंकर के अन्तेवासी के पास लेने का विधान है। इस संयम के धारक मुनि तीसरे पहर में ही भिक्षा या विहार कर सकते हैं, शेष समय में ध्यान, कायोत्सर्ग आदि। दिगम्बर परम्परा में तीस वर्ष की उम्र वाले को इस संयम का अधिकारी माना है साथ ही तीन सन्ध्याओं को छोड़कर दिन के किसी भाग में दो कोस तक जाने का विधान है। इस संयम का ग्रहण तीर्थंकर के सिवाय अन्य किसी के पास नहीं हो सकता; ऐसा विधान है। यथा-तीसं वासो जम्मे, वासपुधत्तं खु तित्थयर-मूले।
पच्चक्खाणं पढिदो, संझूण दुगाउयविहारो॥ . -गोम्मटसार जीवकाण्ड ४७२ (ख) श्वेताम्बर परम्परा में प्रमाण-एयस्स एस नेओ, गिहि-परिआओ जहन्नि गुणतीसा। ____ जइ-परियाओ वीसा; दोसु वि उक्कोस देसूणा॥ -जयसोमसूरिकृत टब्बा (ग) चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. १२ टिप्पण (पं. सुखलालजी), पृ. ५९
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