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________________ १९४ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ का उदय नहीं रहता। इस उदयस्थान की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की ओर उत्कृष्ट देशोन करोड़ पूर्व वर्ष की है। कर्मों के उदीरणास्थान पांच : क्यों और कैसे संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवस्थान में पांच उदीरणास्थान हैं-आठ कर्मों का, सात कर्मों का, छह कर्मों का, पांच कमों का और दो कर्मों का। ___ आठ कर्मों का उदीरणास्थान आयुकर्म की उदीरणा के समय और सात कर्मों का उदीरणास्थान आयुकर्म की उदीरणा रुक जाने के समय होता है। आयुः की उदीरणा तब रुक जाती है, जब वर्तमान आयु आवलिका-प्रमाण शेष रह जाती है। वर्तमान आयु की अन्तिम आवलिका के समय पहला, दूसरा, चौथा, पांचवाँ और छठा, ये पांच गुणस्थान पाये जा सकते हैं, दूसरे नहीं। अतः सात के उदीरणा स्थान का सम्भव, इन पांच गुणस्थानों में समझना चाहिए। तृतीय गुणस्थान में सात कर्मों का उदीरणास्थान नहीं होता, क्योंकि आवलिकाप्रमाण आयु के शेष रहने के समय यह गुणस्थान ही सम्भव नहीं है। इसलिए तीसरे गुणस्थान में आठ कर्मों का उदीरणास्थान माना गया है। छह कर्मों का उदीरणास्थान सातवें से लेकर दसवें गुणस्थान की एक आवलिका-प्रमाण स्थिति बाकी रहती है, तब तक पाया जाता है, क्योंकि उस समय आयु और वेदनीय, इन दो कर्मों की उदीरणा नहीं होती। . पांच कर्मों का उदीरणास्थान दसवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका, जिसमें मोहनीय कर्म की उदीरणा रुक जाती है, से लेकर बारहवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका-पर्यन्त है। इस समय में उदीरणायोग्य पांच कर्म ये हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, नाम, गोत्र और अन्तराय। बारहवें गुणस्थान की अन्तिम आवलिका से लेकर तेरहवें गुणस्थान के अन्त तक नाम और गोत्र, इन दो कर्मों का उदीरणास्थान होता है, क्योंकि १२वें गुणस्थान की १. चतुर्थ कर्मग्रन्थ गा. ८ विवेचन (पं. सुखलालजी), पृ. ३०-३१ तत्र यदाऽनुभूयमान-भवायुरावलिकाऽवशेषं भवति, तदा तथास्वभात्वेन तस्यानुदीर्यमाणत्त्वात् सप्तानामुदीरणा, यदा त्वनुभूयमान- भवायुरावलिकाऽवशेष न भवति तदाऽष्टानां प्रकृतिनामुदीरणा। तत्र मिथ्यादृष्टि-गुणस्थानकात् प्रभृति यावत् प्रमत्तसंयत-गुणस्थानकं तावत् सप्तानामष्टाना . वां .. उदीरणा सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानके तु सदैवाऽष्टानामेव उदीरणा, आयुष आवलिकाशेरे मिश्र-गुणस्थानस्यैवाऽभावात्। -चतुर्थ कर्मग्रन्थ स्वोपज्ञ टीका पृ. १२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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