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________________ जीवस्थानों में गुणस्थान आदि की प्ररूपणा १८३ के ४ भेद-सत्य वचनयोग, असत्य वचनयोग, सत्यमृषा वचनयोग तथा असत्यामृषा वचनयोग । काययोग के सात भेद - ( १ ) औदारिक, (२) औदारिकमिश्र, (३) वैक्रिय, (४) वैक्रियमिश्र, (५) आहारक, (६) आहारकमिश्र और (७) कार्मणकाययोग | पन्द्रह प्रकार के योगों का स्वरूप मनोयोग-सद्भाव यानी समीचीन पदार्थों को विषय करने वाले मन को सत्यमन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग ( स्पन्दन या क्रिया) होता है, उसे 'सत्यमनोयोग' कहते हैं। इससे विपरीत योग को मृषा - मनोयोग कहते हैं तथा सत्य और मृषा योग को सत्य- मृषा - मनोयोग कहते हैं। जो मन न तो सत्य होता है और न मृषा; उसे असत्यामृषा मन कहते हैं और उसके द्वारा जो योग होता है, उसे असत्यामृषा मनोयोग कहते हैं। वचनयोग-दस प्रकार के सत्य वचन में वचनवर्गणा के निमित्त से जो योग हो, उसे सत्यवचनयोग कहते हैं। इसके विपरीत जो योग हो, उसे मृषावचन- योग कहते हैं। सत्य और म्रुषा वचनरूप योग को उभय (सत्यमृषा) वचनयोग कहते हैं तथा जो वचनयोग न तो सत्यरूप हो और न मृषारूप, उसे असत्यामृषा वचनयोग कहते हैं । काययोग - औदारिक शरीर द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति से जीव- प्रदेशों में परिस्पन्द कारणभूत जो प्रयत्न होता है, उसे औदारिक काययोग कहते हैं । औदारिक शरीर की उत्पत्ति के प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर अन्तर्मुहूर्त्त तक मध्यवर्ती काल में जो अपूर्ण शरीर है उसे औदारिकमिश्र काययोग कहते हैं। वैक्रियशरीर के अवलम्बन से उत्पन्न हुए परिस्पन्द द्वारा जो प्रयत्न होता है, उसे वैक्रिय काययोग कहते हैं । वैक्रियशरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के प्रथम समय से लगाकर 'शरीर-पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को वैक्रियमिश्र काययोग कहते हैं । स्वयं को किसी सूक्ष्म अर्थ या विषय में सन्देह उत्पन्न होने पर सर्वविरत मुनि जिसके (मुंड हाथ के शरीर के) द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर अपने सन्देह को दूर करता है, उसे आहारककाय और उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले योग (परिस्पन्द-क्रिया) को आहारक काययोग कहते हैं। आहारक शरीर की उत्पत्ति प्रारम्भ होने के समय से लगाकर शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीर को आहारकमिश्र काय कहते हैं, उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है, वह आहारक - मिश्र काययोग कहलाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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