SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १६९ होते हैं और कुछ ऐसे होते हैं, जो पीछे से प्रत्येक समय में ग्रहण किये जाकर पूर्वगृहीत पुद्गलों के संसर्ग से तद्रूप बने हुए होते हैं और बनते जाते हैं। ___ जीव के द्वारा गृहीत इन पुद्गलों का कार्य भिन्न-भिन्न होता है। इसलिए कार्यभेद से पर्याप्ति के निम्नलिखित ६ भेद हो जाते हैं-(१) आहार-पर्याप्ति, (२) शरीरपर्याप्ति, (३) इन्द्रिय-पर्याप्ति, (४) श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति, (५) भाषा-पर्याप्ति और (६) मन-पर्याप्ति। इन छह पर्याप्तियों का प्रारम्भ युगपत् होता है, क्योंकि जन्मसमय से लेकर ही इनका अस्तित्व पाया जाता है, किन्तु इनकी पूर्णता क्रमशः होती है। इन छह पर्याप्तियों में से एकेन्द्रिय जीव के चार पर्याप्तियाँ होती हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास तथा विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) एवं असंज्ञीपंचेन्द्रियों के मनःपर्याप्ति के सिवाय शेष ५ पर्याप्तियाँ होती हैं और संज्ञीपंचेन्द्रिय जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। - लब्धि और करण से अपर्याप्त और पर्याप्त के लक्षण जो पर्याप्त जीव होते हैं, उनमें गृहीत पुद्गलों को आहारादि रूप में परिणत करने की शक्ति होती है, जबकि अपर्याप्त जीवों में इस प्रकार की शक्ति नहीं होती। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त और अपर्याप्त के निनोक्त दो-दो प्रकार होते हैं (१) लब्धि-अपर्याप्त, (२) करण-अपर्याप्त - (३) लब्धि-पर्याप्त और (४) करण-पर्याप्त। (१) जो जीव, अपर्याप्त नाम-कर्म के उदय के कारण ऐसी शक्ति वाले हों, . जिससे कि स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किये बिना ही मर जाते हैं, वे लब्धि-अपर्याप्त १. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा.२ का परिशिष्ट 'घ' (पं. सुखलालजी) पृ. ४१ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. २ विवेचन (मरुधरकेसरी) पृ. ४९ (ग) थानांग स्था.६ (घ) आहारे य सरीरे तह इंदिय आणपाण भासाए। - होति मणो वि य कमसो पजत्तीओ जिणमादा। -मूलाचार १०४५ (ङ) आहार-सरीरिदिय-पजत्ती आणपाण-भास-मणो। चत्तारि पंच छप्पिय, एगिदिय-विगल-सन्नीणं ॥ गो. जी. ११९, बृहत्संग्रहणी ३४९ . (च) पजत्ती पट्टवर्ण जुगवं तु कम्मेण होदि निट्टवणं। - -गो. जी. १२० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy