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चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १६७ हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा कहा गया है। इस दृष्टिकोण से पांच स्थावर असंज्ञी हैं तथा द्वीन्द्रिय आदि चार त्रस संज्ञी हैं। __ (३) तीसरे विभाग में देव, नारक, गर्भज मनुष्य, गर्भज तिर्यंच-पंचेन्द्रिय आते हैं; जिनमें चेतना का पूर्वोक्त दोनों विभगों से अधिक विकास विवक्षित है जिससे सुदीर्घ भूतकाल में अनुभूत विषयों का स्मरण और उस स्मरण द्वारा वर्तमान-कालिक कर्तव्यों का निर्धारण किया जाता है। यह ज्ञानरूप कार्य होता है-विशिष्ट मन की सहायता से। इस ज्ञान को दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा कहा गया है। दीर्घकालोपदेशिकी संज्ञा के फलस्वरूप सदर्थ (सम्यगर्थ) का विचार करने की बुद्धि, निश्चयात्मक विचारणा, अन्वयधर्म का अन्वेषण, व्यतिरेक धर्म (स्वरूप) का पर्यालोचन, तथा अतीत में यह कार्य कैसे हुआ? वर्तमान में कैसे हो रहा है? भविष्य में कैसे होगा? इत्यादि प्रकार के (सत्पदप्ररूपणादि) चिन्तन-मनन, विचार-विमर्श एवं प्रत्यक्ष-अनुमानादि प्रमाण द्वारा वस्तु-स्वरूप को अधिगत करने की क्षमता प्राप्त होती है। ___ (४) चतुर्थ विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञानी आते हैं, क्योंकि इस विभाग में विशिष्ट श्रुतज्ञान विवक्षित है। यह ज्ञान इतना शुद्ध (चैतन्यविकासात्मक) होता है, कि सम्यग्दृष्टि जीवों के सिवाय अन्य जीवों में सम्भव नहीं है। इस विशिष्ट
चैतन्यविकासात्मक विशुद्ध ज्ञान को दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा कहा गया है। - निष्कर्ष यह है कि पूर्वोक्त चार विभागों में जीवों का वर्गीकरण करके जहाँ कहीं भी शास्त्रों में संज्ञी-असंज्ञी का उल्लेख किया है, वहां ओघसंज्ञा और हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीवों को 'असंज्ञी', तथा दीर्घकालोपदेशिकी एवं दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा वाले जीवों को 'संज्ञी' कहा गया है। इस प्रकार की अपेक्षा से एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रय जीवों को अंसज्ञी और पंचेन्द्रिय जीवों को संज्ञी-असंज्ञी . दोनों प्रकार का कहा गया। इस दृष्टि से एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों के कुल सात मुख्य भेद हो जाते हैं।'
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ संज्ञा शब्द पर परिशिष्ट 'ग' (पं. सुखलाल जी)
(ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन गा. २ पर (मरुधरकेसरीजी), पृ. ४७-४८ (ग) इस विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें-तत्त्वार्थ भाष्य २/२५, नन्दी सूत्र,
सूत्र ३९, विशेषावश्यक गा. ५०४-५२६, लोकप्रकाश सर्ग ३ श्लोक. ४४२४६३।
(शेष पृष्ठ १६८ पर)
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