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चौदह जीवस्थानों में संसारी जीवों का वर्गीकरण १६५
तिर्यंचगति के पूर्वोक्त एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के जीवों में से द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव अपने-अपने हित-अहित में प्रवृत्ति - निवृत्ति के लिए स्वयं हलन चलन करने में समर्थ हैं, जबकि एकेन्द्रिय जीव असमर्थ हैं । १
चौदह प्रकार के जीवस्थानों में संज्ञी - असज्ञी - विचार
पूवोक्त चौदह प्रकार के जीव वर्ग में एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय तक के जीव . असंज्ञी होते हैं, तथा तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय जीवों में कोई संज्ञी होते हैं, कोई असंज्ञी । २
संज्ञी - अंसी का प्रचलित अर्थ
संज्ञी का अर्थ सामान्यतया किया जाता है - जो (द्रव्य) मन के सहित हो, और असंज्ञी का अर्थ किया जाता है, जो (द्रव्य) मन से रहित हो। वैसे- संज्ञी का अर्थ होता है - जिसके संज्ञा हो और असंज्ञी का अर्थ किया जाता है - जिसके संज्ञा न हो । ३
आगमों द्वारा प्ररूपित संज्ञा के प्रकार
आगमों में यत्र-तत्र संज्ञा शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त किया गया है - ( १ ) नामनिक्षेप - अर्थात् किसी पदार्थ का नाम रखना, जैसे- राम, कृष्ण, गाय, घोड़ा इत्यादि। (२) आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रह की संज्ञा - अभिलाषा और (३) धारणात्मक या चिन्तनात्मक ज्ञान-विशेष । प्रस्तुत प्रसंग में संज्ञा का अर्थ निक्षेपरूप न होकर आभोग यानी मानसिक प्रवृत्ति विशेष है। मानसिक प्रवृत्ति दो प्रकार की होती है - ज्ञानात्मिका और अनुभवात्मिका (आहारादि की अभिलाषारूप)। इस दृष्टि से संज्ञा के दो प्रकार हो जाते हैं- ज्ञान और अनुभव । मति, श्रुत आदि पांच प्रकार के ज्ञान ज्ञान-संज्ञा रूप हैं और आहारादि १०, १६ या ४ अनुभवात्मक संज्ञा हैं। भगवती सूत्र एवं प्रज्ञापनासूत्र में १० संज्ञाएँ इस प्रकार बताई गई हैं- (१) आहारसंज्ञा, ५ (२)
१. (क) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा.२ विवेचन, ( मरुधरकेसरी) पृ. ४५ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ गा. २ विवेचन (पं. सुखलालजी) पृ. १०
२. कर्मग्रन्थ भा. ४, विवेचन ( मरुधरकेसरीजी), पृ. ४५-४६
३. संज्ञिनः समनस्काः। समनस्काः अमनस्काः ।
-तत्वार्थसूत्र २/२५, ११
४. आहाराद्रि चारों संज्ञाओं के प्रमुख कारण क्रमशः असातावेदनीय, भय, वेद, लोभकर्म
उदीरणा है।
५. (क) इह जाहि नाहिया विय, जीवा पार्वति दारुणं दुक्खं ।
सेवंता वि य उभये, ताओ चत्तारि सण्णाओ ॥ - गोम्मटसार (.जी.) गा. १३४ (ख) आहारादि विषयाभिलाषः संज्ञेति ।
- सर्वार्थसिद्धि २/२४
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