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________________ १६२ कर्म विज्ञान : भाग ५ : कर्मबन्ध की विशेष दशाएँ जीवों के पांचों भावेन्द्रियों को मानने में आज कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। डॉ. जगदीशचन्द्र बसु ने एकेन्द्रिय वनस्पतिकायिक जीवों में स्मरणशक्ति, मानस शक्ति आदि का अस्तित्व सिद्ध करके बता दिया है कि वनस्पतियों में निम्नस्तर की चेतना वाली अव्यक्त इन्द्रियाँ मानने में कोई आपत्ति नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य में इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि लब्धि-इन्द्रिय की अपेक्षा से सभी संसारी जीव पांचों (भाव) इन्द्रियों वाले हैं। __एकेन्द्रिय जीवों के पांच प्रकार हैं-(१) पृथ्वीकाय, (२) अप् (जल) काय, (३) तेजस्काय (अग्निकाय), (४) वायुकाय और (५) वनस्पतिकाय। इन पांचों में सिर्फ एक स्पर्शनेन्द्रिय (त्वचा) होने से तथा ये स्वयं हलचल करते दिखाई न देने से स्थावर कहलाते हैं। शेष द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस कहलाते हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में क्रमश; रसन आदि एक-एक इन्द्रिय बढ़ती जाती है। जैसे-एकेन्द्रिय में सिर्फ स्पर्शेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय में स्पर्शन और रसन (जीभ), त्रीन्द्रिय में स्पर्शन, रसन और घ्राण (नाक), चतुरिन्द्रिय में स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु (आँख), पंचेन्द्रिय में स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और श्रोत्रेन्द्रिय (कान) हैं। तत्त्वार्थसूत्र में पांचों इन्द्रियों के नाम इसी क्रम से दिये गए हैं।२ . ___ एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर पर्याय का स्वरूप पृथ्वीकाय आदि पांचों स्थावर एकेन्द्रिय जीव दो प्रकार के होते हैं-सूक्ष्म और बादर। लेकिन द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के जीवों में सूक्ष्म-बादरकृत भेद नहीं होते, वे सभी बादर (स्थूल) ही होते हैं। जीवस्थान के चौदह भेदों में से एकेन्द्रिय जीवों के सूक्ष्म और बादर, इन दो भेदों को मानने का कारण यह है कि सूक्ष्मशरीर वाले एकेन्द्रिय जीव आँखों (चर्मचक्षुओं) से नहीं दिखाई दे पाते, उनका अस्तित्व तो ज्ञानगम्य है, या सर्वज्ञ-आप्त द्वारा प्ररूपित होने से मान्य है। जबकि बादर शरीर १. (क) कतिविहा णं इंदियलद्धी पण्णता? गोयमा ! पंचविहा इंदियलद्धी पं., पंचविहा (वि) इंदिय उवउगद्धा पण्णत्ता। -प्रज्ञापना २/१५ (ख) कर्मग्रन्थ भा. ४ विवेचन (मरुधरकेसरी), पृ, ३६, ३७ (ग) अहवा पडुच्च लद्धिंदियं पि पंचिंदिया सव्वे। -विशेषावश्यक गा. ३००१ २. (क) पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतयः स्थावराः। संसारिणस्त्रस-स्थावराः। -तत्त्वार्थसूत्र-२/१३, १२ (ख) संसार-समावनगा तसे चेव थावरे चेव। -स्थानांग २/५७ (ग) स्पर्शन-रसन-घ्राण-चक्षु-श्रोत्राणि। -तत्त्वार्थ २/२० Jain Education International . . . For Personal & Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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