SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१४) कुंजी है। जीव समास जीव की स्थिति बताते हैं, मार्गणा-स्थानों द्वारा जीव की गवेषणा की जाती है तथा गुणस्थान आत्मिक उन्नति के वे सोपान है, जो निम्रतम स्थिति से उच्चतम स्थिति तक पहुँचने में सहायक बनते हैं, इनसे यह स्पष्ट प्रतिभासित होता है कि जीव आध्यात्मिक साधना करके मोक्ष रूपी मंजिल की ओर कितना आगे बढ़ चुका है। गुणस्थान जीव के भावों/अध्यवसायों पर आधारित होते हैं। अतः औपशमिक आदि पाँचों प्रकार के भावों का भी वर्णन आवश्यक होने से यहाँ किया गया है। साथ ही क्षपक और उपशम श्रेणी पर भी विचारणा प्रस्तुत की गई है। अभीष्ट होने से राग और द्वेष से होने वाले बन्ध की प्ररूपणा भी की गयी है। - जिन कर्मविज्ञान जिज्ञासुओं ने पिछले चारों भागों का अध्ययन/मनन किया है। उनको इस भाग में कर्मबन्ध सम्बन्धी विशिष्ट जानकारी प्राप्त होगी। जिन्होंने पिछले चार भागों का अध्ययन नहीं किया है, उन्हें मेरा परामर्श है कि वे उन भागों को अवश्य पढ़ें ताकि इस पंचम भाग का विषय सरलता से समझने और हृदयंगम करने में समर्थ हो सकें। इस प्राक्कथन के साथ ही मैं अपने अध्यात्म नेता, श्रमण संघ के आचार्य सम्राट आनन्द ऋषि जी म. का पुण्य स्मरण करता हूँ जिनके आशीर्वाद और कृपा प्रसाद का मैं सदा ऋणी रहूँगा। मेरे परम उपकारी पूज्य गुरुदेव उपाध्याय श्री पुष्कर मुनि जी यद्यपि सशरीर आज नहीं रहे, किन्तु अशरीर होकर भी मेरी रग-रग में समाये हैं, रोम-रोम में बसे हैं। उन्हीं ने मेरे जीवन का निर्माण किया, सद्गुणों की सुगन्ध से आप्लावित किया और मुझे इस योग्य बनाया कि कर्मविज्ञान जैसे महत्वपूर्ण विशाल ग्रन्थ की सर्जना कर सकूँ तथा आज जिस पद पर मैं आसीन हूँ, उसकी गौरव-गरिमा को अक्षुण्ण रख सकूँ। संघीय कार्यों से मुझे कम अवकास मिल पाता है। अतः कर्मविज्ञान जैसे विशाल ग्रन्थ के सम्पादन में हमारे श्रमण संघीय विद्वान मनीषी मुनि श्री नेमिचन्द्र जी महाराज ने अपना हार्दिक सहयोग प्रदान किया है। उनका यह सहयोग चिरस्मरणीय है और वे धन्यवाद के अधिकारी हैं। इस लेखन सम्पादन में मैंने विशाल दृष्टि रखी है। देशी विदेशी विद्वानों की अनेक रचनाओं का अवलोकन और उपयोग किया है। मैं उन सभी लेखकों और प्रकाशकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004246
Book TitleKarm Vignan Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages614
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy